Sunday, March 8, 2009

तब 64 पैसे का एक रुपया होता था


किसी ने लिखा है कि - बचपन का जमाना होता था, खुशियों का खजाना होता था। चाहत चांद को पाने की और दिल तितली का दीवाना होता था। इंसान के अतीत में बचपन का अहम रोल होता है। अनजान बचपन हर चीज को पाने की ख्वाहिश पाल लेता है। अतीत में कई लम्हें ऐसे हैं, जिन्हें भुलाया जा सकता है, लेकिन बचपन नहीं। पुरानी आबादी निवासी 72 वषीüय दानाराम छींपा बताते हैं कि पुराने समय में स्कूलों में पढ़ाई का तरीका अलग होता था। तब वाणिज्य शिक्षा में सवाइया, पव्वा व अद्धा आदि शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था। अब इसका प्रचलन नहीं है। वे बताते हैं कि 64 पैसे का एक रुपया होता था, बंटवारे के काफी समय बाद 100 पैसे का एक रुपया हुआ। पाई, धेला और 64 पैसे का रुपया चलता था। उन्होंने बताया कि करीब 1945 मेंे यहां पहली बस चलाई गई, जिसका रूट पदमपुर से गंगानगर का कच्चा रास्ता था। पçब्लक पार्क में वह बस खड़ी रहती थी। वे बताते हैं कि बंटवारे से पहले कुछ ही ट्रेनें चला करती थीं, जिनमें से एक कलकत्ता टू कराची (केके) जो हिंदुमलकोट से होकर गुजरती थी। निकटवतीü गांव बख्तांवाली, ढींगावाली आदि जगह मुसलिमों की संख्या अधिक थी। बंटवारे के दौरान पाक जाने वाले मुसलिमों ने पुरानी आबादी स्थित कोçढ़यों वाली पुली के निकट तीन दिन तक शरणस्थली बनाए रखी। इस दौरान मुसलिमों ने बैल-ऊंटगाड़ों पर सामान लाद रखा था। पलंग व अन्य घरेलू सामान उन्होंने यहां लोगों को बेच दिया। वह बड़ा अजीब सा दृश्य था, जो आज तक याद है।

Tuesday, March 3, 2009

बाहर से आने वाले सामान पर लगता था `जकात´


जीवन को पटरी पर निरंतर चलने देने के लिए अतीत भी एक सहारे के रूप में काम करता है। बीते दिनों की यादों में बहुत से मीठे-कड़वे अनुभव भी çछपे होते हैं। करीब 72 वषीüय भगवानदास नागपाल ने बताया कि भारत-पाक बंटवारे के दौरान खाली हाथ और केवल बदन पर कपड़े थे। यहां आने पर नए सिरे से जीवन की शुरुआत की। कठिनाइयों के बावजूद एमए, एलएलबी की शिक्षा हासिल की। तब इतने साधन नहीं हुआ करते थे, फिर भी कभी उनकी कमी का अहसास नहीं होता था। उन्होंने बताया कि पुराने समय में क्षेत्र में बाहर से आने वाले सामान पर कर (जकात) लगाया जाता था। व्यापार मंडल भवन व कचहरी के नजदीक जकात थाने बने हुए थे, जहां जकात लिया जाता था। कर तो अब भी लगता है, लेकिन पुराने तरीके और आज के तरीके में काफी अंतर है। पहले सब बाहर से आने वाले सामान पर लगने वाले कर को जकात कहा करते थे। नागपाल ने बताया कि पेयजल का एकमात्र साधन डिçग्गयां हुआ करती थीं। बचपन के वक्त डिçग्गयों के बाहर बाçल्टयों से पानी भरकर नहाया करते थे। युवा पीढ़ी को प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने के साथ ईमानदारी की सलाह देते हुए नागपाल ने कहा कि आज स्टेट्स सिंबल में परिवर्तन आया है। तब के समय यदि किसी के पास घड़ी अथवा साइकिल भी होती थी तो वह सुविधाएं उक्त व्यक्ति की अमीरी को दशाüती थीं। गंगानगर के एसडी कॉलेज से पहले बैच में लॉ करने वाले नागपाल का कहना है कि महंगाई के इस दौर में इंसान को खर्च सोच-समझकर करना चाहिए।

महंगाई के दौर में वक्त की जरूरत हैं छोटे परिवार


कहते हैं कि वक्त जब बदलता है तो इंसान उसी दहलीज पर आ खड़ा होता है, जिसे वो कभी ठोकर मारकर चला गया था। इसलिए वक्त की कद्र करनी चाहिए। किसी गरीब के पहनावे को देखकर उसे दुत्कारना नहीं चाहिए। अपने दिल में कुछ ऐसी ही मंशा रखते हैं 82 वषीüय हनुमानप्रसाद शर्मा। जे-ब्लॉक निवासी शर्मा बताते हैं कि जिंदगी के बीते दिनों की हंसी यादें जीने की ताकत को बढ़ाने में मदद करती हैं तो फिर कैसे भूल जाएं उन पलों को। जिंदगी में माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई परोपकार नहीं, यह खुद भी सीखा और दूसरों को भी सिखा रहे हैं। वे बताते हैं कि तब इंसान की रगों में मेहनत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि भी होती थी। काम-धंधों में आज जो मेहनत लगती है, उतनी तब भी लगा करती थी। लेकिन आज व्यक्ति में सब्र नजर नहीं आता। गर्मी के दिनों में कबड्डी बहुत खेला करते थे, लेकिन आज मानो जैसे कबड्डी खेलना जैसा शरीर ही किसी के पास नजर नहीं आता। कुश्ती-कबड्डी प्रमुख खेलों में शामिल थे। उन्होंने कहा कि तब बीमारियों का इलाज बिना डॉक्टरों के लोग घरों में देसी नुस्खों से कर लेते थे। करीब पचास साल पहले आठ-दस बच्चों का एक परिवार में होना तो आम बात होती थी। अब छोटे परिवार महंगाई के इस दौर में वक्त की जरूरत हो गए हैं। उन्होंने बताया कि कोई उनसे गुजरे जमाने की बातें सुनने आता है तो बहुत अच्छा महसूस होता है। बुजुगाüवस्था में ज्यादातर लोगों को गुजरना पड़ता है, इसलिए ऐसे कर्म करने चाहिए कि बुढ़ापा भी अच्छे ढंग से व्यतीत हो जाए।

Sunday, March 1, 2009

लुप्त हो रहा है चरखा कातने का प्रचलन


अकसर जब उन रास्तों से गुजरता हूं, जहां बचपन बिताया, तो लगता है कि वो सड़कें रूठी हुई हैं और खेलने के लिए फिर से बुला रही हैं। जागती रातों का दीवारों को ताकना मानो बीते लम्हों को याद दिला रहा है। उम्र के 70वें वर्ष में प्रवेश कर चुके एच-ब्लॉक निवासी मनजीतसिंह बताते हैं कि अतीत में बचपन का भी कुछ हिस्सा है, जो चाहकर भी नहीं भुला पाता। कपड़ों की बनी दड़ी (गेंद) से मार-धाड़ खेलना और अंधेरा होने पर कभी-कभार घरवालों की डांट सहना, बड़े अच्छे दिन थे वो। उन्होंने बताया कि पुराने समय में महिलाएं चरखा कातती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। चरखा कातना अत्यंत रोचक दृश्य होता था। रिटायर्ड हैडमास्टर मनजीतसिंह ने बताते हैं कि तब गे्रजुएट के लिए तो सरकारी नौकरी घर चलकर आती थी, लेकिन आज पोस्ट-ग्रेजुएट भी वंचित हैं। उन्होंने भी शिक्षा विभाग के दफ्तर में पढ़ाई संबंधी दस्तावेज दिखाए और उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। आज तो अनेक प्रकार के कंपीटीशन से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान ही बीएड की, जिसके बाद उन्नति मिली। बचपन में मां कहानी-लोरी सुनाकर बच्चों को सुलाया करती थी, आज वो प्रचलन नहीं है। आज तो मां-बाप बच्चों को मोबाइल की रिंगटोन सुनाकर चुप कराते हैं। पुराने समय में ऐसी कल्पना नहीं की थी कि कभी ऐसा समय आएगा, जब बिना तारों के लोग मीलों दूरी तक बातें कर सकेंगे। जो समय बीत गया तो वो लौटकर नहीं आ सकता है, लेकिन जब बीत दिनों के बारे में कोई पूछता है तो अच्छा महसूस होता है।

Friday, February 27, 2009

तब तो चूनावढ़ से गंगानगर पैदल ही आ जाते थे


अतीत जिंदगी का बीता हुआ हिस्सा है। उम्र जितनी आगे जाती है, यादें उतनी प्यारी लगने लगती हैं। उम्र के 75 बसंत देख चुके मिल्खीराम सेतिया से जब बीत दिनों के बारे में बात की गई तो उन्होंने बेहिचक उन्हें साझा किया। बकौल सेतिया तब स्टंर्ड ऑफ लिविंग सिंपल था, लेकिन आज मॉडनü हो चुका है। परिवर्तन के इस दौर में कुछ अच्छा भी हुआ, लेकिन बहुत कुछ है तो बुरा भी। उन्होंने बताया कि 1953 में सिंचाई विभाग में नौकरी शुरू की। तब चूनावढ़ से गंगानगर पैदल ही आ जाया करते थे। घर का खान-पान ही है जो उन्हें उम्र के इस पड़ाव में तंदुरुस्त बनाए हुए है। वे बताते हैं कि तब तो विवाह कम उम्र में ही कर दिया करते थे। मेरा विवाह 16 साल की उम्र में हुआ। बचपन तो होता था, लेकिन जिम्मेदारी को बखूबी समझते थे। शुरू से ही सेल्फ डिपेंड रहने की आदत है। पुराने समय में कबड्डी, गुल्ली डंडा आदि प्रमुख खेल होते थे। गली में गुल्ली-डंडा खेलना आज भी याद हैं, लेकिन आज इसे कोई खेलता ही नहीं। बचपन के हंसी लम्हें अकसर जब कोई बात करता है तो याद आ जाते हैं। 1947 में बंटवारे के बाद भारत आए सेतिया ने बताया कि आज की पीढ़ी के लिए बहुत से साधन उपलब्ध हैं, लेकिन तब ऐसा नहीं होता था। यहां तक की बिना लाइट के जीवन यापन करते थे। आजकल जो कॉफी-चाय का रिवाज है, वो भी काफी समय बाद शुरू हुआ। अंत में यही कहना चाहूंगा कि जो बीता सो ठीक, लेकिन भविष्य के लिए आज की पीढ़ी को सचेत होना जरूरी है।

Tuesday, February 24, 2009

हाफ पेंट, नंगे पांव व हाथ में तख्ती...और चल दिए स्कूल


आंखों में कैद बीत दिनों के हंसी लम्हे, जब इनके बारे में कोई बात करता है तो अच्छा महसूस होता है। यह कहना है करीब 82 वषीüय रमेशचंद्र गुप्ता का। पुरानी आबादी निवासी गुप्ता बताते हैं कि सन् 1935-36 में जब वे स्कूल जाते थे तो नंगे पांव ही घर से निकल लिया करते थे। हाथ में तख्ती, दस्ता (घर की बनी कॉपी) और हाफ पेंट पहने टहलते-टहलते स्कूल जाना आज भी याद है। उन्होंने बताया कि लिखने के लिए चाकू के जरिए बनछटियों की कलम बनाते थे। तब तो सातवीं कक्षा भी बोर्ड की होती थी, जिसका पेपर जयपुर में हुआ करता था। धीरे-धीरे बहुत कुछ बदल गया। उन्होंने बताया कई लोग बग्गी, तांगे व इक्के (चौकोर घोड़ा गाड़ी) का इस्तेमाल आवागमन के लिए करते थे। बकौल गुप्ता विवाह की रस्मे भी अजीब होती थी। लड़की वालों को यदि लड़का पसंद आ गया तो हाथों-हाथ माथे पर तिलक लगाया, एक रुपया लड़के के हाथ में रखा और रिश्ता पक्का। गुप्ता ने बताया कि सस्ता जमाने में 1948 को जब उनकी शादी का कुल खर्च 550 रुपए आया था। आठ रुपए एक माह की पगार हुआ करती थी, फिर भी घर चलाने में ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। क्योंकि खर्च सीमित थे। आज की शिक्षा व्यवस्था से आहत गुप्ता बताते हैं कि करीब 1950 से पहले स्कूलों का निरीक्षण करने की जरूरत एसडीएम-तहसीलदार को नहीं पड़ती थी, लेकिन बाद में अनियमितताओं के कारण ऐसा प्रचलन शुरू हो गया। मिड-डे-मील योजना के कारण स्कूल शिक्षा का मंदिर कम रसोई घर ज्यादा नजर आता है।

एक मटका सिर पर और दूसरा कमर पर


एक मटका सिर पर और दूसरा कमर पर। पुराने जमाने में महिलाओं की दिनचर्चा में शामिल हुआ करता था कुंओं से पानी भरना। करीब 84 वषीüय कलावती देवी का कहना है कि आज समय बदल गया है। घर में ही पेयजल की सप्लाई हो जाती है और वैसे भी आज के वक्त एक महिला के लिए दो मटके उठाकर दूर जगह से पानी भरकर लाना कठिन है। तब तो महिलाएं घर में रखी चक्की पर ही गेहूं पीसकर आटा तैयार करती थीं और फिर संयुक्त परिवार के करीब 25 सदस्यों का खाना भी बनाती थीं। इसके बाद खेतीबाड़ी के काम में हाथ बंटाती थीं। वे बताती हैं कि बारात ऊंटों, बैलगाडि़यों व घोडि़यों पर निकला करती थी। चार दिन तक पड़ाव डालने वाली बारात का सारा मोहल्ला स्वागत करता था। बारात के साथ आए बैलों व ऊंटों की भी खूब सेवा होती थी। आज तो दोपहर को बारात जाती था, शाम को वापसी। घंटे-दो घंटे का हो-हल्ला होता है, न तो पुराने समय के रीति-रिवाज नजर आते हैं और न ही वो गीत-संगीत। वे बताती हैं कि तब बुखार होते ही गर्म बाजरे की राबड़ी मरीज को पिलाते थे। बुखार जल्दी ठीक हो जाता था। आज अंग्रेजी दवाईयाें पर लोग ज्यादा निर्भर हैं, लेकिन तब देसी नुस्खे काम आते थे। मेहनत ज्यादा होती थी और खुराक भी ज्यादा। उनका कहना है कि आज जमाना बदल गया है। स्वाथीü पन ज्यादा है, जिसके चलते लोग अपने जिम्मेदार भी भूलते नजर आ रहे हैं। मर्यादाओं को तोड़ना आने वाले कल के लिए हानिकारक हो सकता है।

Monday, February 23, 2009

गुरुनानक गल्र्स स्कूल-कॉलेज की जगह लगता था पशुओं का मेला


जिंदगी को पटरी पर निरंतर चलने देने के लिए अतीत भी एक सहारे के रूप में काम करता है। बीते दिनों की यादों में बहुत से मीठे-कड़वे अनुभव भी çछपे होते हैं। उम्र के 83 बसंत देख चुके विनोबा बस्ती निवासी इंद्रजीतसिंह बिंद्रा बताते हैं कि इंसान के हाथ में बहुत कुछ होता है, वो चाहे तो जिंदगी के हर कठिन मोड़ पर मुश्किलों को बड़ी आसानी से विदा कर सकता है। पुराने समय की बातों को याद करते हुए वे बताते हैं कि मल्टीपर्पज स्कूल करीब 1944 में स्टेट हाई स्कूल के नाम से जाना जाता था, जहां उन्होंने मैटि्रक पास की। करीब 1940 की दिनों को कुदेरते हुए रिटायर्ड हैडमास्टर बिंद्रा बताते हैं कि गुरुनानक गल्र्स स्कूल-कॉलेज व नेहरू पार्क के स्थान पर पशुओं का बड़ा मेला लगा करता था, स्कूल-कॉलेज तो बाद में बने हैं। मेले में होने वाले वॉलीबॉल मुकाबले में हर बार हाजी साहब की टीम जीतती थी। उन्होंने बताया कि पुराने समय में सçब्जयों के रोचकता भरे कंपीटिशन भी हुआ करते थे, जिसमें विजेताओं को पुरस्कृत किया जाता था। बकौल बिंद्रा पुराने समय में लोगों के खर्च बहुत कम हुआ करते थे और आमदन भी कम। उन्होंने बताया कि वे जब पढ़ने के लिए दूसरे शहर में जाते तो वहां एक कमरे का एक माह का किराया चार आना लगा करता था। वे बताते हैं कि गंगानगर में जब विद्युत सप्लाई प्रथम बार आई, तब का समय भी उन्हें याद है। घरों की बजाय सरकारी कार्यालयों में सबसे पहले विद्युत सप्लाई हुई। गंगानगर ने आज बहुत तरक्की कर ली है। तब तो एक छोटी सी ढ़ाणी होती थी, जिसे लोग रामनगर कहते थे।

सिक्कों की कमी के कारण चली गत्ते की मुद्रा


लोगों के दिलों में एक-दूजे के प्रति प्यार की झलक तो पुराने जमाने में ही नजर आती थी, जिसकी आज कमी खलती है। करीब 80 वषीüय कर्मसिंह मांगट ने बीते दिनों की यादों को ताजा करते हुए बताया कि बंटवारे से पूर्व एक बार सिक्कों की कमी होने के कारण गत्ते की मुद्रा चली थी। उक्त मुद्रा पर मुहर लगाकर चलाया गया था। 25 बीबी (पदमपुर) स्थित जीएसजीडी कॉलेज के निदेशक मांगट ने 1950 से पूर्व की बात करते हुए बताया कि जब हाड़ी की फसल काटने के लिए आवत बुलाई जाती थी। इस दौरान गांव के प्रत्येक परिवार का एक-एक आदमी सभी लोगों की फसलों को कटाने में मदद किया करता था, जिस परिवार की फसल काटी जाती थी, उक्त परिवार वाले सभी लोगों को हलवा, घी व शक्कर आदि खिलाया करते थे। गर्मी के मौसम में कबड्डी बहुत खेला करते थे, लेकिन आज मानो जैसे कबड्डी खेलना जैसा शरीर ही किसी के पास नजर नहीं आता। कुश्ती-कबड्डी प्रमुख खेलों में शामिल थे। उन्होंने कहा कि तब बीमारियों का इलाज बिना डॉक्टरों के लोग घरों में देसी नुस्खों से कर लेते थे। आक के फूलों में से एक चार काने वाला लौंग निकाल कर गुड़ की गोली बनाकर मरीज को देते तो बुखार दूर हो जाता था। आंखों का इलाज सुरमे से किया जाता था। बुजुर्ग लोगों को नजर के चश्मों की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। उन्होंने बताया कि महाराजा गंगासिंह के समय चोरी, झगड़ा-फसाद नहीं होते थे। तुरंत न्याय मिल जाया करता था।

Saturday, February 21, 2009

जवानी में था कुर्ता, पायजामा व जूती का शौंक


डेढ़ रुपए में 20 किलोमीटर चलकर पढ़ाने जाते थे, फिर भी थकान जैसी चीज नहीं थी। कारण था घर का दूध-दही। परंतु आज दो-चार किमी बिना मोटरसाइकिल के चलना लोगों को मुश्किल लगता है। करीब 71 वषीüय एफ ब्लॉक निवासी हरनेकसिंह बताते हैं कि कल के मुकाबले आज में परिवर्तन तो आया है, लेकिन सुविधाएं भी बढ़ी हैं। बीते पलों को याद करते हुए उन्होंने बताया कि तब मकानों की छतों पर टीन-छप्पर लगे होते थे, जो आंधी आने पर उड़ जाया करते थे। उन्होंने बताया कि नजदीकी गांवों से गंगानगर में पढ़ने के लिए अनेक स्टूडेंट्स के साथ वे यहां रहते थे। एसडी स्कूल तो थोड़े समय पूर्व ही बना है, इससे पहले यहां बहुत कम संख्या में लोग रहते थे। उक्त स्थान पर एक हॉस्टल में दोस्तों के साथ रहना आज भी याद है। डेढ़ सौ कच्चे-पक्के कमरों से बने हॉस्टल का 15 रुपए किराया लगा करता था। वहीं नजदीक छज्जूराम की दुकान पर खूब खाया-पीया करते थे। तब जयपुर बोर्ड की शिक्षा हुआ करती थी। उन्होंने बताया कि आज युवक नई किस्म के रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं, लेकिन जब वे हॉस्टल में रहते थे तो उनके पास दो-दो कुतेü व पायजामे होते थे, जिनके जरिए वे पूरा सत्र निकाला करते थे। उन्होंने बताया कि शूज के स्थान पर जूती का प्रचलन था। उन्होंने बताया कि नहाने व तैयार होने से ज्यादा समय पगड़ी बांधने में लगाया करते थे। पगड़ी के प्रति युवाओं में रूचि बहुत अधिक थी। अब वो समय बीत चुका है, कई बार पुरानी यादें ताजा होती हैं, तो अच्छा महसूस होता है।

बेटी को दहेज में चरखा दिया करते थे


उम्र बेशक 85 वर्ष हो चुकी है, लेकिन उनकी बातों और हौसले से कोई उन्हें बुजुर्ग नहीं कह सकता। पुराने समय का खान-पान दौलतराम गोदारा को आज भी स्वस्थ बनाए हुए है। वे बताते हैं कि आज विवाह के रस्मो-रिवाज में भी परिवर्तन आया है। तब तो ब्राrाण रिश्ता तय किया करते थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। लड़का-लड़की शादी से पहले एक-दूजे को देखते नहीं थे, लेकिन अब तो पहले दिखाई, फिर सगाई और बाद में विवाह। दहेज में लड़की को गाय-भैस, घोड़ी के साथ चरखा जरूर दिया करते थे। आज तो टीवी व फनीüचर का अधिक प्रचलन है। विवाह की रस्मे भी बहुत हुआ करती थी। घर में देसी घी का चूरमा बनाया जाता था, जिसे कई दिनों तक खाया करते थे। गुड़ व चने इतने होते थे कि पशुओं को भी खिलाया करते थे। उन्होंने बताया कि कच्चे मकान होते थे, जिनकी दीवारों पर चीकनी मिट्टी की पुताई करते थे। त्यौहारों के वक्त सारे घर में चीकनी मिट्टी का लेप करते थे। अब पक्के मकान हैं, जिसके चलते चीकनी मिट्टी लोग उपयोग समाप्त हो गया है। नशे की बढ़ती प्रवृçत्त पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा कि तब लोग दूध-दही आदि खाकर सेहत का सबसे ज्यादा ख्याल रखते थे, लेकिन आज नशे की लत ज्यादातर युवाओं में ही नजर आती है। कई जगह तो ऐसी स्थिति देखने को मिलती है कि युवक माता-पिता की सेवा करना तो दूर की बात खुद भी जिंदगी जी पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं।

Thursday, February 19, 2009

`अब मिलावट का दौर´


किसी विद्वान ने कहा है कि - वह आदमी जो कभी और कहीं असफल नहीं हुआ, वह कभी महान नहीं बन सकता। आदर्श नगर निवासी 84 वषीüय जोगेंद्रसिंह बताते हैं कि असफलताएं ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती हैं। असफलता का हर कदम एक सबक के रूप में उभरकर सामने आता है, जो सफलता की इच्छा को जागृत करता है। वे बताते हैं कि सबकुछ इंसान के हाथ में नहीं होता। वक्त पर बहुत कुछ निर्भर है। आज समय के साथ हर चीज में परिवर्तन आ रहा है। बच्चों के आज इतने खर्चे हो चुके हैं, तब जितने में लोग परिवार का पालन-पोषण किया करते थे। परिवार तो छोटे होते जा रहे हैं, लेकिन खर्च बीत कल के मुकाबले बढ़ता ही जा रहा है। उन्होंने बताया कि आज घरों में कई बार दूषित पेयजल की सप्ल्ााई होती है, लेकिन तब ऐसा नहीं था। खुली नहरों में भी पीने योग्य पानी हुआ करता था। प्रदूषण कम होने की वजह से पानी भी शुद्ध होता था। कच्ची नहरों के बावजूद पेयजल में गंदगी नहीं होती थी। जहां तक सवाल है फिल्टरड पानी का तो आज घरों में फिल्टर लगे हैं, तब फिटकरी का इस्तेमाल किया जाता था। बीड़ी-सिगरेट का नाम कोई नहीं जानता था। सवा रुपए किलो शुद्ध देशी घी मिलता था। दूध व दही प्रचुर मात्रा में प्रत्येक घर में था। खान-पान की बात पर उन्होंने बताया कि पुराने समय का खाए हुए दूध-घी के कारण ही वे आज भी स्वस्थ महसूस करते हैं। लेकिन आज का घी व दूध रासायनिक मिलावट के कारण धीमा जहर बन गया है।

दस्त का इलाज तूंबे की जड़


आज से सत्तर वर्ष पहले ना तो कोई गंभीर बीमारी हुआ करती थी और ना ही चिकित्सक हुआ करते थे। उस जमाने में केवल नाड़ी वैद्य हुआ करते थे जो नाड़ी की गति जांच कर बीमारी का उपचार किया करते थे। उम्र के 92 बसंत देख चुके श्योपुराकस्सी निवासी श्योनारायण पूनियां ने बताया कि हमारे समय में बुखार होने पर धोरों की रेत को पानी में उबालकर छानकर पिलाने से बुखार दूर किया जाता था तथा दस्त लगने पर तूंबे की जड़ चूसने को दी जाती थी। लेकिन समय के फेर ने देशी नुस्खों को भुलाकर अंग्रेजी दवाओं का बोलबाला कर दिया। उनका कहना है कि उस समय में लोगों के पास जमीन बहुत हुआ करती थी। गेहूं की पैदावार कम होती थी तथा पशु पालन कर उनका व्यापार किया जाता था। उन्होंने बताया कि हमारे घर में एक हजार बकरियां व 80 गायें हुआ करती थी। सूरतगढ़ से श्रीगंगानगर के बीच कोई शिक्षा केंद्र नहीं होने के कारण क्षेत्र के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए संगरिया पैदल या ऊंटों पर सवार होकर जाना पड़ता था। पूनियां ने बताया कि क्षेत्र में महाराजा गंगासिंह न्याय के लिए प्रसिद्ध थे। पीने के पानी के लिए कई कोसों के अंतराल पर कुएं होते थे। सूरतगढ़ में पानी की ढाब होती थी जिसके पास एक छोटा सा बाजार लगा करता था। बीकानेर आने-जाने वाले राहगीर इसी ढाब पर पानी पीकर अपने गंतव्य की ओर बढ़ते थे। आज के युवा वर्ग को नसीहत देते हुए श्योनारायण कहते हैं कि मां-बाप की सेवा से बढ़कर संसार में कोई भी पुण्य नहीं है।

Monday, February 16, 2009

मशहूर थे चिçश्तयां के खरबूजे


उम्र के इस पड़ाव ने उनके हाथ में सहारे के लिए छड़ी जरूर दे दी है, लेकिन जब उनके मन को टटोला तो नजर आया कि बहुत सी ऐसी यादें वे अपने जेहन में समेटे हैं, जो उन्हें आज भी जवां बनाए हुए है। ई-ब्लॉक निवासी 76 वषीüय हीरालाल गुप्ता कहते हैं कि इंसान को हार से कभी निराश नहीं होना चाहिए। नाकामयाबी के लिए मुकद्दर को कोसना भी उचित नहीं, बल्कि हार से सीख लेकर किया गया प्रयास किसी सफलता से कम नहीं। बुजुगाüवस्था में अनुभव का पिटारा लिए गुप्ता बताते हैं कि उनका जन्म पाकिस्तान के बहावलनगर में हुआ। बंटवारे के दौरान वे मुसलमान बनकर भारत की ओर रवाना हुए। कत्ल-ए-आम की स्थिति में कुछ मुसलमानों उन्हें पहचान लिया और उनके सहित चार जनों को मस्जिद में रोक लिया। उन्होंने बताया कि इस दौरान उनके साथ एक कुत्ता भी था, जिसने मस्जिद के एक दरवाजे पर लगी संकल को पंजों से खींचकर खोल दिया। कुदरत की इस मेहरबानी का लाभ उठाते हुए वे रातों-रात वहां से निकल लिए। वे बताते हैं कि पुराने समय में पाकिस्तान स्थित चिçश्तयां के खरबूजे भारत में भी मशहूर थे। यहां रह रहे अनेक लोग उन खरबूजोंे के दीवान थे। काफी तादाद में खरबूजों को बेचने के लिए यहां लाया जाता था। उन्होंने बताया कि जब वे छोटे थे तब बाजार में स्थित दुकानों के बाहर लोहे की शटर की जगह लकड़ी के सींखचों से बने टेंपरेरी दरवाजे होते थे। क्योंकि चोरी-चकारी का कोई डर नहीं होता था। गुप्ता दिन में टीवी पर धामिüक कार्यक्रम देखने के अलावा अकाउंट का कामकाज भी देखते हैं।

ऊंटों पर निकलती थी बारात


बुजुगाüवस्था भी बचपन की तरह नादान और अन्जान होती है। इंसान के मन में किसी चीज को पाने का लालच मानो समाप्त हो जाता है। उम्र के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके मनोहर भुंवाल ने जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि आज के समय में बहुत परिवर्तन आ चुका है। आज जहां घोडि़यों-कारों पर बारात निकलती है, लेकिन तब तो ऊंटों पर दूल्हा सेहरा बांधकर बैठता था। लड़की के घर बारात 2-3 तीन तक रुकती थी। अब तो दोपहर को जाओ शाम को बारात पुन: घर आ जाती है। रस्मों-रिवाज में भी कटौती हुई है। उन्होंने बताया कि तब तो भेड़ों की ऊन से बनी दरियां मेहमानों के बैठने के लिए बनाई जाती थीं। मेहमाननवाजी का तरीका ही अलग होता था। बिना ड्रेस के स्कूल जाते थे। घर का बना स्कूल बैग और उसमें तख्ती व कलम होती थी। न तो आज के मुताबिक किताबों का भार होता था ना ही भारी-भरकम फीस। वे बताते हैं कि तब पुलिसकर्मी बहुत कम दिखाई देते थे। क्योंकि अपराध कम होते थे। जब कभी लोग पुलिसवालों को देखते थे तो घरों के दरवाजे बंद कर लेते थे। वे बताते हैं कि तब जमीन ठेके पर लेनी होती थी तो 300 रुपए में 25 बीघा जमीन ठेके पर मिल जाती थी। मात्र दो रुपए मजदूरी में भी घर चला करते थे। उन्होंने बताया कि 1962 व 1965 के युद्ध में लोग खुद ही घरों के बाहर पहरा लगाया करते थे। आज जिस तरह नशा युवा वर्ग सहित अनेक लोगों के जीवन को बबाüद कर रहा है, लेकिन तब लोग नशे का प्रयोग नहीं करते थे। बुजुर्ग लोग हुक्के का इस्तेमाल करते थे।

Sunday, February 15, 2009

तब तो गुरुद्वारों में लगा करती थी कक्षाएं


वक्त इंसान को बहुत कुछ सिखाता है, लेकिन समय रहते संभलना और न संभलना व्यक्ति के हाथ में होता है। खालसा नगर निवासी 84 वषीüय बाबूसिंह बराड़ कहते हैं कि एक वक्त था जब खेती करने के लिए साधनों की कमी होती थी, लेकिन फिर भी किसान हाथों से ही हल जोता करते थे। ऐसा नहीं है कि आज किसान की मेहनत नहीं लगती, लेकिन पहले के मुकाबले बहुत कम। बराड़ ने बताया कि पुराने समय में गुरुद्वारों में पढ़ाई करवाई जाती थी। गुरुद्वारे के सेवादार गुरमुखी की शिक्षा दिया करते थे। उन्होंने बताया कि एक बार उनके पास कलम नहीं थी, तो रेत को जमीन पर डालकर उसपर अक्षर उकेरा करते थे, जिसके जरिए भी उन्हें कुछ अक्षरों का ज्ञान हुआ। उम्र के इस पड़ाव में भी बराड़ निकटवतीü गांव 12-जी छोटी में जमीन की देखरेख के लिए अकसर जाते हैं। वे बताते हैं कि तब ट्रैक्टर व गेहूं थ्रेसिंग के लिए मशीने नहीं हुआ करती थीं। जब पहली बार उन्होंने ट्रैक्टर को देखा तो हैरान रह गए, लोगों ट्रैक्टर को `हल चलाने वाली मोटर´ के नाम से पुकारते थे। पौते-पड़पौतों वाले बराड़ बताते हैं कि जब वे गांव में रहा करते थे, तब शहर में कचहरी पर ऊंटगाड़े के जरिए आया करते थे। उन्होंने बताया कि तब कपड़े फैशन के लिए नहीं पहने जाते थे, खादी के कपड़ों का प्रचलन होता था। आज की राजनीति से घृणा करते हुए वे कहते हैं कि विकास के नाम पर वोट बटोरे जाते हैं, लेकिन असल में आज की राजनीति पद लालसा की है, न की विकास की। इसमें सुधार की आवश्यकता है।

मां-बाप की दुआएं ले ली हैं जिसने,पापों की गठरी उसने सर से उतारी ली


कहते हैं कि -
मां-बाप की दुआएं ले ली हैं जिसने,
पापों की गठरी उसने सर से उतारी ली
आज व्यर्थ के ख्ार्च और दुनिया की विलासिता ने इंसान के जीवन में बड़ा परिवर्तन ला दिया है। दिन-रात की मेहनत और भागदौड़ के बावजूद आर्थिक संतुष्टि कहीं देखने को नहीं मिलती। केवल धन-दौलत ही सबकुछ नहीं बल्कि बड़े-बुजुगोZ की देखभाल इंसान के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्स्ाा है। एफ ब्लॉक निवासी 82 वषीüय सोमनाथ भाटिया से जब बात की तो उन्होंने कहा कि बुजुगाüवस्था में यादें, बातें और अनुभव ही, जो हर कदम पर साथी बना है। यादों को साझा करते हुए उन्होंने बताया कि बंटवारे से पहले पाकिस्तान में सलवार-कुर्ता पहनकर स्कूल जाया करते थे। आज जहां स्कूल जाने वाले बच्चों को मां टिफिन में मैगी व अन्य चीजें पैक करके देती है, तब खद्दर के कपड़े में चटनी व चपाती बांध कर दिया करती थी। मजहब के नाम की लड़ाई से तौबा करते हुए वे बताते हैं कि बंटवारे के दौरान हुए दंगों की पीड़ा आज भी किसी न किसी पल सताने लगती है। वे बताते हैं कि आज जहां मेहमानों को चाय पिलाई जाती है, तब दूध का प्रचलन था। जब गंगानगर आए थे तो ब्लॉक एरिया में मकान कम पेड़ ज्यादा हुआ करते थे। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ती गई, सिंचाई योग्य जमीन होने के कारण अनेक लोग यहां बस गए।

`चाहकर भी नहीं भुला पाई बीते दिन´


अचानक घरों पर पत्थर बरसते देख धड़कनें बढ़ गई। जब खिड़की से बाहर की ओर देखा तो लोगों का झुंड घर को घेरे हुए था। घर वालों में खुसर-फुसर होने लगी। माजरा जब तक समझ में आता इतने में ही परिवार के बड़ों ने गुपचुप रूप से घर छोड़ने का निर्णय ले लिया। पदमपुर के निकटवतीü गांव 6 सीसी की 80 वषीüय हरबंसकौर भारत-पाक बंटवारे के दिन चाहकर भी नहीं भुला पाई हैं। उन्होंने बताया कि जब बंटवारे का ऐलान हुआ तो वे बहुत छोटी थीं। नाजुक हालातों में एक रात उनका परिवार भारत जाने वाले काफिले में शामिल हो गया। रास्ते में लाशों के ढेर लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि काफिले में बैलगाडि़यों पर सवार लोगों की रक्षा के लिए सिख सैनिकों ने उन पर घेरा डाला हुआ था। करीब 28 दिन की जद्दोजहद के बाद वे भारत पहुंचे। थोड़ा बहुत सोना व खाने का सामान उन्हें साथ में लिया था, लेकिन बीच रास्ते में सोना भी खोना पड़ा। तब लोगों को सिर्फ अपनी जान की चिंता थी, पैसा-कपड़ा कोई नहीं संभाल रहा था। हरबंसकौर बताती हैं कि ऐसा समय दोबारा न आए इसके लिए वे अकसर ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। वे बताती हैं कि तब जुबान की कीमत सबसे अधिक होती थी, लेकिन आज ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। वक्त के साथ-साथ समाज के लोगों में बदलाव देखने को मिला है। रहन-सहन के ढंग व पहनावे में जो अंतर आया है, कई बार वो संस्कृति पर कुठाराघात नजर आता है, लेकिन इंसान को समय के साथ ही चलना पड़ता है।

Friday, February 13, 2009

समाçप्त के कगार पर है घूंघट का रिवाज

जो व्यक्ति समय के साथ नहीं चलते और ठहर जाते हैं बीते कल के साथ, वो वर्तमान का पूरा लुत्फ नहीं उठा पाते। समय कभी ठहरता नहीं और ना ही किसी का इंतजार करता है, इसलिए उसका फायदा उठाना जरूरी है। आने वाला पल जाने के लिए ही आता है। इंसान को चाहिए कि वह हर पल को जिये। पुरानी आबादी निवासी 80 वषीüय सरजीतकौर का मानना है कि अतीत को भूलना नहीं चाहिए, लेकिन उसमें डूबना भी नहीं चाहिए। हां! बचपन के दिन और वो जमाना बहुत किफायती था, लेकिन `आज´ भी बुरा नहीं है। उन्होंने बताया कि पुराने समय में तो महिलाएं घर में भी घूंघट रखती थीं, लेकिन आज तो घर हो या बाहर ऐसा देखने को कम मिलता है। ऐसी बात नहीं कि लज्जा-शर्म भंग हो गई, लेकिन घूंघट का रिवाज खत्म होता नजर आ रहा है। वे बताती हैं कि 60-70 साल पहले गांवों की तरह माहौल हुआ करता था। पानी भरने के लिए 25 घरों में से एक घर में नल हुआ करता था, जहां से महिलाएं पानी भरकर लाती थीं। कतार में महिलाएं मटकों के जरिए घरों के लिए पानी लाती थीं, लेकिन आज तो घरों में वाटर वक्र्स से पानी सप्लाई होता है। घर में आज जहां दिन में तीन-चार प्रकार की सçब्जयां बनाई जाती हैं, तब दिन में दो बार दाल का ही इस्तेमाल करते थे। वे कहती हैं कि अब जो समय है, उसमें जीवन तो व्यतीत करना ही है और ये जरूरी भी है।

तब सुई-धागे से घर मेंे कपड़ों की सिलाई करते थे

वो भी वक्त था जब सूरज-चांद को देखकर समय का अंदाजा लगाया जाता था। उम्र के 81वें वर्ष में प्रवेश कर चुकीं पारीदेवी शर्मा बताती हैं कि जब वह छोटी होती थीं तो उनके घरों में घडि़यां नहीं हुआ करती थीं। परिवार वाले दिनचर्या को देखते हुए समय का अंदाजा लगाया करते थे। सूरज-चांद से सुबह व शाम का पता चलता था। इसी के दृष्टिगत खाना बनाने व खाने का समय तय किया हुआ था। उन्होंने बताया कि आज हर घर में टेलीविजन है, लेकिन तब ऐसा नहीं था। मुट्ठी जितने कस्बे में एकाध घर में टीवी हुआ करता था, जिसे देखने के लिए बच्चों का हुजूम लग जाता था। परन्तु महिलाएं टीवी नहीं देखा करती थीं। आज टीवी ने देश की संस्कृति को बिगाड़ कर रख दिया है। चूल्हा छोड़ महिलाएं ज्यादा समय टीवी देखने में बिताने लगी हैं। तब तो महिलाएं घर में ही चक्की के जरिए बाजरी पीसा करती थीं, फिर उसकी रोटी बनाती थीं। इसके बाद महिलाएं खेतों में भी काम करने जाया करती थीं। आज जहां कपड़ों की सिलाई के लिए अनेक दुकानें खुली हुई हैं, लेकिन तब तो घर में सिलाई मशीन भी नहीं होती थी और महिलाएं सुई-धागे के जरिए कपड़ों की सिलाई किया करती थीं। शिक्षा महिलाओं के लिए भी कितनी जरूरी है, इस बात का अंदाजा आज के वक्त से लगता है, लेकिन शिक्षा के साथ-साथ इंसान संस्कारों को न भूले।

Thursday, February 12, 2009

तब कई घरों की रोटी एक ही चूल्हे पर पकती थी


आज जहां एक घर में भी अलग-अलग चूल्हे बने हैं, पुराने समय में कई घरों की रोटी एक ही चूल्हे पर पकती थी। यह कहना है कि वार्ड नं. 13 निवासी 80 वषीüय प्रसन्नीदेवी मित्तल का। उन्होंने बताया कि तब मोहल्ले में साझा चूल्हा हुआ करता था, जिस पर महिलाएं बारी-बारी से रोटियां सेकती थीं। वे बताती हैं कि वक्त के साथ-साथ समाज इतनी बदल जाएगा, ये कभी सोचा भी नहीं था। आज स्वाथीüपन ज्यादा नजर आता है। उन्होंने बताया कि 60-65 साल पहले जब विद्युत व्यवस्था नहीं होती थी तो रात के समय अंधेरे में आवाज देकर एक-दूजे की पहचान होती थी। बिना लाइट के भी कभी दिक्कत महसूस नहीं होती थी। रात के समय मिट्टी के तेल के दिए इस्तेमाल करते थे। गैस सिलेंडर तो अब आए हैं, लेकिन तब चूल्हा पर ही खाना बनाते थे व पानी गर्म किया करते थे। आज भी कई जगह ऐसा प्रचलन है, लेकिन पूरी तरह लोग चूल्हे पर निर्भर नहीं हैं। आज इंसान खुद की जरूरतों को पूरा करने में लगा हुआ है, लेकिन तब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता था। वे बताती हैं कि आज एक बच्चे का लालन-पालन कर पाने में कई लोग असमर्थ नजर आते हैं, लेकिन तब तो पांच या इससे अधिक बच्चों का भी बड़ी आसानी से लालन-पालन हो जाता था। बच्चों को समय पर खिलाना-पिलाना व अन्य देखरेख अकेली मां ही कर लेती थी। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान काफी व्यस्त हो चुका है।

पंचमुखी हनुमान मंदिर की जगह कबड्डी खेला करते थे

सबकुछ तकदीर पर ही नहीं छोड़ना चाहिए, इंसान के लिए यह जरूरी है कि वो वक्त का फायदा उठाए। जो व्यक्ति तकदीर के भरोसे जीवन छोड़कर बेपरवाह हो जाता है, उम्र का कोई न कोई पड़ाव उसे व्यर्थ में गवाए समय का अहसास जरूर करवाता है। पुरानी आबादी निवासी 70 वषीüय पालाराम का कहना है कि इंसान को वक्त की कद्र करनी चाहिए। क्योंकि समय पर बहुत कुछ निर्भर है। जब उनसे बचपन की खट्टी-मीठी यादों के बारे में बात की गई तो उन्होंने बताया कि छोटी उम्र में ही घर के पशुओं को चराना सीख लिया था। आज तो बच्चे का दिन स्कूल, ट्यूशन व सोने में ही बीत जाता है, तब तो छोटे-छोटे बच्चे भी घर के कामकाज में हाथ बंटाते थे। वे बताते हैं कि आजकल क्रिकेट का जुनून हर युवा के सिर पर सवार है। तब तो कबड्डी का ही प्रचलन था। पुरानी आबादी स्थित पंचमुखी हनुमान मंदिर तो अब बना है, इससे पहले यहां युवक कबड्डी खेला करते थे। उन्होंने बताया कि पुरानी आबादी स्थित कुएं पर गणगौर पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता था, लेकिन अब गणगौर के प्रति वो रौनक देखने को नहीं मिलती। लोगों का जो इस पर्व के प्रति उत्साह था, वो अब नहीं रहा। समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदल चुका है। कमाई के साथ घर खर्च में भी वृद्धि हुई है। उन्होंने बताया कि बुजुगाüवस्था में अब यादें ही हैं जो कई बार आंखों के सामने आ जाती हैं। बीते दिन चाहे सुख में बीते हों या दुख में, उनके बारे में यदि कोई बात करे तो अच्छा भी लगता है।

बुजुगोZ का फैसला कोर्ट-कचहरी से कम नहीं होता था


वो भी एक वक्त था जब कोर्ट कचहरी की जरूरत नहीं पड़ती थी। घर के बड़े-बुजुगोZ को फैसला सर्वोपरि होता था, लेकिन आज सब दूषित होता नजर आ रहा है। करीब 70 वषीüय छगनलाल सचदेवा बताते हैं कि मुकदमेबाजी का प्रचलन कुछ समय पूर्व ही चला है। बुजुगाüें की बात को उतनी अहमियत नहीं मिलती, जितनी पुराने समय में दी जाती थी। वे बताते हैं कि तब 50 रुपए जिसके पास होते थे, वो सेठ कहलाता था, लेकिन आज करोड़पति होने के बावजूद से `सेठाई´ जैसी बात नहीं है। सरकारी नौकरी आसानी से मिल जाती थी, लेकिन लोग खुद के व्यवसाय को ज्यादा तरजीह देते थे। वे बताते हैं कि पुराने समय में दिल्ली से लाई गई घडि़यां यहां बहुत बिका करती थीं, लेकिन अब उतनी तादाद में घडि़यों की बिक्री नहीं होती। रेडियो सुनने का प्रचलन अधिक था। एक रेडियो पर समाचार व गाने सुनने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था। तब कपड़ों को तन ढकने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन आज तो फैशन के लिए कपड़े पहने जाने लगे हैं। कपड़ों कीमत एक दिन इतनी हो जाएगी, कभी सोचा नहीं था। उन्होंने बताया कि तब किराए-भाड़े भी कम हुआ करते थे। बीकानेर जाने के लिए पांच रुपए किराया लगा करता था। आज कमरतोड़ महंगाई के लिए कुछ हद तक हम खुद भी जिम्मेदार हैं, जो अनावश्यक खर्च को नहीं रोकते।

नेहरू पार्क वाली जगह पर मनाया जाता था दशहरा


समय के साथ हर चीज में बदलाव आना स्वाभाविक है। इसलिए अतीत में ही खोए रहना उचित नहीं। यदि अतीत के साथ चिपके रह जाएंगे, तो वर्तमान जीवन की कई चीजों से हम वंचित रह जाएंगे। करीब 70 वषीüय भागीरथ स्वामी बताते हैं कि इंसान को समय के साथ चलना चाहिए। कल तक उच्च शिक्षा बड़े शहरों तक ही सीमित थी, लेकिन आज करीबन देश के कोने-कोने तक उच्च शिक्षण संस्थान बने हैं। इसे बुजुçर्गयत की बातों (पुराना समय ही अच्छा था) के प्रति नकारात्मक रुख न माना जाए, क्योंकि उच्च शिक्षा कल भी जरूरी थी और आज भी। कल जिनका अभाव था, आज वो साधन मौजूद हैं। स्वामी बताते हैं कि तब वे निकटवतीü गांव 15 जैड से शहर में पढ़ने के लिए पैदल आते थे। आज एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में स्कूल जाने के लिए बच्चों को रिक्शा की जरूरत पड़ती है। थोड़े बड़े हुए तो मोटरसाइकिल भी चाहिए। मूल रूप से 15 जैड गांव के निवासी भागीरथ स्वामी बताते हैं कि वे यहां शिक्षा ग्रहण करने के लिए लगातार आते रहे हैं, इसलिए यहीं के ही होकर रह गए हैं। उन्होंने बताया कि करीब 40-45 साल पहले दशहरा नेहरू पार्क के खाली पड़े स्थान पर मनाया जाता था। बाद में पार्क बन गया, जिसके बाद सुखाडि़या सçर्कल स्थित रामलीला मैदान में दशहरा मनाया जाने लगा। तब भी लोग गांवों से चलकर यहां दशहरा देखने आते थे, आज भी वैसी ही स्थिति है।

Tuesday, February 10, 2009

पैन की जगह कलम व दवात इस्तेमाल करते थे


जीवन संघर्ष क्या होता है? इसके बारे में आज हर कोई नहीं जानता। इसलिए आज जरूरत है बुजुçर्गयत की अहमियत और गरिमा को पहचानने की। बुजुगोZ के चिंतन को समझना होगा और उनकी उपयोगिता को भी। यह बातें तब उजागर हुईं जब बुजुगोZ की कड़ी में 76 वषीüय मोहनलाल घडि़याव से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि समय की सुई तो चलती ही रहेगी और ये जरूरी भी है। आज बहुत कुछ बदल चुका है। बचपन की यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि जब वे तीसरे कक्षा में थे तो कलम, दवात, तख्ती व घर का बना बैग कंधे पर टांगकर स्कूल जाया करते थे, वो दिन कई बार याद आ जाते हैं। आज एक पैन-रजिस्टर की जितनी कीमत हो चुकी है, तब इतने में स्कूल की फीस अदा हो जाती थी। उन्होंने बताया कि तब कई पुलिसकर्मी हॉफ पेंट पहना करते थे, लेकिन आज तो पुलिस अधिकारी-कर्मचारी सभी पेंट पहनते हैं। एक थानेदार और साथ में चार हवलदारों की टोली अकसर बचपन में देखते थे, तो डर जाते थे। तब न तो यातायात के इतने साधन थे और न ही सड़क मार्ग। आज तो वाहनों की कांय-कांय बहुत परेशान करती है। वे बताते हैं कि आज अनावश्यक खर्चाें में जो बढ़ोत्तरी हुई है, वो ही महंगाई बढ़ने का कारण है। बड़े परिवार पालना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुंकिन हो रहा है। यही कारण है कि आज संयुक्त परिवार नजर नहीं आते।

तब घरों के बाहर लगते थे बांस के सींखचों से बने दरवाजे


कस्बे के गुड़ व्यवसायी महताबसिंह नांरग से जब बीते दिनों के बारे में बात की गई तो वे मुस्कुरा उठे। उन्हाेंने बताया कि 1947 को जब वे यहां आए तो सारा इलाका रेतिला होता था। अंधेरियां से उड़ने वाली धूल-मिट्टी को झेलना तो आदत बन गई थी। वे बताते हैं कि तब क्षेत्र में तंबाकू की खेती होती थी, जो धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अब उनका स्थान अन्य फसलों ने ले लिया है। पुराने समय में सरकार ने आढ़त, हलवाई, गिन्नी व अन्य कायोZ हेतु दुकानें आबंटित की थीं। तत्कालीन जिला बोर्ड कर्मचारी एक माह का छह रुपए किराया लेता था और रसीद दे जाता था। गुड़ काफी तादाद में बनता था, जिसे बेचकर कई लोग घर का गुजारा करते थे। आज जहां नए-नए डिजाइनों के लकड़ी के दरवाजों का इस्तेमाल होता है, तब लोहे के टीन व बांस के सींखचों से दरवाजे बनाए जाते थे। प्रत्येक घर के बाहर ऐसे ही दरवाजे देखने को मिलते थे। आज की तरह पैसे के लिए भागदौड़ तब नहीं होती थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आने पर घर बनाने के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ा, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। 1959 में 1900 रुपए में मकान खरीदा। वे बताते हैं कि उन दिनों की तरह अपनापन व ईमानदारी अब बहुत कम देखने को मिलती है। ज्यादातर लोग कच्चे घरों में ही रहते थे। आय के साधन आज के मुकाबले बहुत ही कम थे।

Monday, February 9, 2009

तब गैस लैंप ही होते थे रोशनी का जरिया


बुजुçर्गयत के प्रति ज्यादातर मत नकारात्मक ही मिलेंगे, लेकिन यदि बुजुगोZ के अनुभवों को टटोलकर जीवन में उतार लिया जाए तो बहुत सी मुश्किल राहें आसान हो सकती हैं। विनोबा बस्ती निवासी सुदर्शन मल्होत्रा बताते हैं कि 1947 में वे भारत आए, तब गंगानगर सुनसान होता था। युवावस्था से ही राजनीति की ओर आकर्षित रहे मल्होत्रा बताते हैं कि वंशवाद के चलते आज राजनीति में थोड़ा परिवर्तन जरूर आया है। करीब 73 वषीüय मल्होत्रा बताते हैं कि जब वे भारत आए तब गोल बाजार में गैस लैंपों व मिट्टी के तेल के दीपकों से रोशनी होती थी। सभी दुकानदार गैस लाइटों को दुकानों के आगे टांग दिया करते थे। तब दुकानों के आगे लगे शैड लकड़ी के काने से बनाए जाते थे। कच्चे रास्तों में जब बारिश होती थी तो गोल बाजार में कीचड़ पसर जाता था। राहगीरों के पांव धंस जाया करते थे। उन्होंने बताया कि महाराजा गंगासिंह के समय में प्रजा परिषद हुआ करती थी। रियासत काल के बाद क्षेत्र में कांग्रेेस सहित अन्य दलों का उदय हुआ। वे कहते हैं कि तब चार आना में कांग्रेस का सदस्यता फार्म भरा जाता था। 1949-50 के बाद यहां लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें महाराजा करणीसिंह व प्रो. केदार आमने-सामने थे। महाराजा करणीसिंह ने वो चुनाव जीत लिया था। 1952 में चौ. मोतीराम सहारण कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा चुनाव जीतकर गंगानगर के पहले विधायक बने। उन्होंने बताया कि आज राजनीति में कई मापदंड बदल गए हैं। आयु सीमा का प्रतिबंध कई बार अच्छे प्रत्याशी के चयन में रुकावट बनता है। मल्होत्रा ने बताया कि इंसान संघर्ष को जीवन का लक्ष्य मानकर चले, तो जीने का मजा ही कुछ और है।

सुबह के खाने की लस्सी और प्याज की चटनी नहीं भूला...


जिंदगी के बीते दिनों की हंसी यादें जीने की ताकत को बढ़ाने में मदद करती हैं तो फिर कैसे भूल जाएं उन पलों को। उम्र के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके बालकिशन बाघला ने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि तब इंसान की रंगों में मेहनत के साथ-साथ दिल में आत्मसंतुष्टि भी होती थी। काम-धंधों में आज जो मेहनत लगती है, उतनी तब भी लगा करती थी। लेकिन आज व्यक्ति में सब्र नजर नहीं आता। वे बताते हैं कि सुबह के खाने में लस्सी (छाछ) और प्याज की चटनी आज भी मुंह में पानी ला देती है। बेशक वो घर का सादा खाना हुआ करता था, लेकिन उस जैसा स्वाद अब नहीं मिलता। उन्होंने बताया कि तब तो दूध को बेचना लोग गुनाह समझते थे। यदि किसी को दूध की जरूरत होती थी तो पड़ौसी बिना पैसे के दूध दिया करते थे। सामान लाने-ले जाने के लिए केवल ऊंटगाड़े किराए पर मिलते थे। चार आना (25 पैसे) किराए पर ऊंटगाड़ा चालक सामान को गंतव्य तक पहुंचाते थे। पाकिस्तान के लाला अमरसिंह गांव में जन्मे बाघला बंटवारे के बाद निकटवतीü गांव जगतेवाला में रहने लगे। उन्होंने बताया कि अपने जीवन के दौरान अकाल जैस्ाी आपदा से निपटते हुए लोगों को देखा है। आज जहां इलेक्ट्रोनिक उपकरण के बढ़ते प्रयोग के साथ-साथ नई कंपनियों ने भी पांव जमाकर नौकरियों के द्वार खोले हैं, तब ऐसा नहीं था। तब तो लोग खेती पर ही निर्भर थे। हल चलाकर जो फसल बोई, उससे ही घर-परिवार को चलाया जाता था।

Sunday, February 8, 2009

कल जो पारदशिüता बातों में थी, वो आज कपड़ों में है


27 दिन से खाट पर लेटा हूं। बेशक मुझे देखकर कुछ लोग लाचार समझें, लेकिन उम्र के इस पड़ाव में भी मैं खुद को किसी काम में नाकाम नहीं समझता। बुजुगाüवस्था में अतीत ही है, जो मेरा सबसे अधिक साथ दे रहा है। यह कहना है उम्र के 80 बसंत देख चुके जयकुमार `बेकस´ का। पाकिस्तान के सरगोधा कस्बे में जन्मे `बेकस´ से जब बीते कल के बारे में बात की गई तो उन्होंने अपने अंदाज में इसे बयां किया। वे बताते हैं कि जब भारत-पाक बंटवारा हुआ तो वहां के मुसलिमों ने उन्हें रोते हुए विदाई दी थी, तो कैसे भूल जाएं वो दिन। तब तो ईद के वक्त शामियाना में हिंदुओं को मीठा भोजन करवाया जाता था। बकौल `बेकस´ सियासत ने जो नफरत फैलाई है, उससे संस्कृति भी नष्ट-भ्रष्ट होकर रह गई है। बच्चों की सेवा से संतुष्ट `बेकस´ कहते हैं कि `अपनी औलाद से ताजीम की उम्मीद न रख, गर अपने मां-बाप से तूने बगावत की है...´ पी-ब्लॉक निवासी `बेकस´ बताते हैं कि तब जुबान की कीमत सबसे बड़ी होती थी। कल तक जहां लोगों की बातों में पारदशिüता होती थी, आज सिर्फ कपड़ों में पारदशिüता नजर आती है। कुछ जगह बुजुगोZ की इज्जत न होते देख दुख होता है तो ऐसा लगता है कि तब तो बुजुगोZ को रहमत समझा जाता था, लेकिन आज मानो जहमत लगते हैं। दोष किसी का नहीं, वक्त ही ऐसा है। उन्होंने बताया कि शहर में अध्याçत्मक-धामिüक लाइबे्ररी होनी चाहिए, ताकि परंपरा बरकरार रह सके। वे बताते हैं कि युवावस्था के दिनों में आजाद सिनेमा बहुत बार फिल्म देखने जाते थे, तब सिनेमा की छत नहीं हुआ करती थी। बरसात के दिन में शो कैंसिल भी करना पड़ता था।

राजस्थान के बागड़ में बिकने आता था पाकिस्तान का गेहूं


गुजरे जमाने की यादें अकसर जुबां पर आ ही जाती हैं। बीते पल चाहे सुख में बीते हों या फिर दुख में, उन्हें भुला पाना संभव नहीं होता। करीब 90 वषीüय बनवारीलाल नागपाल बताते हैं कि आज और कल में जो अंतर आया है, वो वक्त की ही मेहरबानी है। पुरानी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने बताया कि भारत-पाक बंटवारे से पहले पाकिस्तान से एक रुपए 14 आने का एक मण गेहूं मिलता था, जिसे खरीदकर भारत में बेचने के लिए लाया जाता था। राजस्थान के बागड़ इलाके में पाकिस्तान के गेहूं की बिक्री अधिक होती थी। वे कहते हैं कि तब तो एक बात मशहूर हुआ करती थी कि `जिसकी चले दुकानदारी, वो क्यों करे तहसीलदारी।´ पढ़ाई करने की तमन्ना तो थी लेकिन तब पढ़ लिखकर सरकारी कर्मचारी लगने की बजाय लोग दुकानदारी में ज्यादा विश्वास रखते थे। इसलिए उनके पिताजी ने उन्हें चार कक्षा पढ़ने के बाद स्कूल से हटा लिया। वे बताते हैं कि आज जहां टाइलों-माबüल से जड़े मकान बनाए जाते हैं तब कच्ची मिट्टी की ईंटों से घर बनाया करते थे, दो-दो फीट चौड़ी दीवार हुआ करती थी। दीवारों पर गोबर का लेप किया जाता था। न तो ज्यादा खर्च आता है और न ही ज्यादा समय लगता था। तब अपराधी को तुरंत सजा का प्रावधान हुआ करता था। ईश्वर के प्रति आस्था रखने वाले नागपाल बताते हैं कि तब सोने की मुरकियों का प्रचलन होता था। धनाढ्य वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति मुरकियां जरूर पहनता था। घुड़सवारी तो पहले आम बात हुआ करती थी, लेकिन आज कुछ ही लोग शौंकिया तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं।

Saturday, February 7, 2009

`मास्टर दा खुंडा ते बापू दी जुत्ती...´


भारत-पाक बंटवारे ने उन्हें कई सालों के लिए बेघर बना दिया। तब चिंता थी तो केवल परिवार वालों की सुरक्षा की। जान बची तो लाखों पाए। पाकिस्तान स्थित बहावलपुर की चिस्तियां मंडी में जन्मे फतेहचंद भठेजा भारत-पाक बंटवारे को एक बड़ा नासूर मानते हैं। उक्त समय हुए दिल-दहला देने वाले दंगे कई सालों बाद भी उन्हें भूले नहीं हैं। उन्होंने बताया कि अपने भाई को बचाने के लिए उन्होंने पाकिस्तान में एक आदमी को रुपयों का लालच दिया, जिसके चलते वे भाई को रेलगाड़ी के पाखाने में छुपाकर भारत ले आए। बंटवारे के बाद 23 बीबी (पदमपुर का पुराना नाम) में रहने लगे। जब उनसे गुजरे जमाने की बात की जाती है तो वे पंजाबी भाषा में अपने बचपन का याद करते हुए बताते हैं कि `साडे टाइम दियां गल्लां ही होर हुंदियां सी.....मास्टर दा खुंडा ते बापू दी जुती दा ऐना जादू सी कि आज वी 32 तक दे पहाड़े मुह-जुबानी याद है।´ करीब 80 वषीüय फतेहचंद पदमपुर के प्रसिद्ध कपड़ा व्यवसायियों में से एक हैं। बहावलपुरी भाषा शैली वाले भठेजा बताते हैं कि आज भेदभाव ज्यादा है। तब ऐसा नहीं था। क्रोध नाम की कोई चीज नहीं होती थी। इंसान के दिल में एक-दूजे के प्रति प्रेम-प्यार अधिक होता था। मोहल्ले वाले परिवार की तरह रहते थे। मिल-जुलकर गुजर बसर करना तब लोगों की आदत में शामिल था। ना चोरी का डर और ना ही शर्मसार करने वाली किसी हरकत का। गरीबी को दूर रखने का मंत्र बताते हुए वे कहते हैं कि `घर में जब गरीबी आ जाए तो, नमक की चुटकी रोटी के साथ खा लेनी चाहिए।´

रिफ्यूजी कॉलोनी के नाम से जाना जाता था मुखर्जी नगर


बीते वक्त मेंे कुछ लम्हें ऐसे भी होते हैं, जिन्हें भुला देना संभव नहीं होता। जिंदगी को पटरी पर निरंतर चलने देने के लिए अतीत भी एक सहारे के रूप में काम करता है। मुखर्जी नगर निवासी किशोरीलाल मदान अपने जेहन में खट्टी-मिट्ठी यादों को आज भी समेटे हुए हैं। वे बताते हैं कि करीब 1966 के वक्त बस स्टैंड के पास स्थित पुलिस चौकी वाले स्थान पर सरकारी स्कूल हुआ करता था, जो नौ नंबर स्कूल के नाम से जाना जाता था। स्कूल के ईर्द-गिदü टिब्बे हुआ करते थे। आज जहां रिक्शों-बसों पर बच्चे स्कूल जाते हैं, लेकिन तब कच्चे रास्ते से पैदल ही आया-जाया करते थे। उन्होंने बताया कि तब मुखर्जी नगर के स्थान पर रिफ्यूजी कॉलोनी बसी थी। धीरे-धीरे जिसे मुखर्जी नगर नाम दिया गया। वे बताते हैं कि हॉफ पेंट पहनकर स्कूल जाना उन्हें आज भी याद है। कंधे पर घर का बना स्कूल बैग टांगकर कच्चे रास्तों से गुजरना अभी तक याद है। उन्होंने बताया कि एक वक्त था जब कुत्ता लकनी नहर का पानी लोग घरों में इस्तेमाल किया करते थे। लोग मटके भरने के लिए नहर पर आया करते थे। क्योंकि तब नहर की सफाई अच्छे तरीके से होती थी। नहर में साफ जल को तैरते हुए देखने का आनंद ही अलग होता था। वे बताते हैं कि तब सस्ता जमाना होता था, कम खर्च में संयुक्त परिवार को चलाया जाता था। आज आमदन के साथ-साथ खचोZ में भी बढ़ोत्तरी हुई है। रहन-सहन में आया परिवर्तन भी बेतहाशा वृद्धि का हिस्सा है। आज के समय में बड़े परिवार का पालन-पोषण करना असंभव नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है।

Tuesday, February 3, 2009

सिर पर रखकर लाया करते थे दूध की टंकियां


बीते दिनों के बारे में भावुक होना लाजमी है, लेकिन सच तो यह है कि जीना आज ही में चाहिए। हां, ये जरूर है कि अतीत में जो कुछ अच्छा है, उसे भविष्य के सांचे में ढालने की कोशिश की जाए। विनोबा बस्ती निवासी प्यारेलाल शर्मा बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि आज जहां दूध 20 रुपए किलो तक पहुंच गया है, 1960 के करीब सात आना सेर दूध मिला करता था। वे बताते हैं कि शहर में दूध बेचने के लिए आज भी गांवों से लाया जाता है, परंतु आज मोटरसाइकिल सहित यातायात के अनेक साधन हैं, तब इतने साधन नहीं थे। लोग कई कोस दूर साइकिलों पर जाया करते थे, जिस गांव में दूध मिला करता था, वहां सड़क संपर्क नहीं था। इसलिए गांव से तीन-चार किमी दूर ही किसी दुकान पर साइकिल खड़ी कर देते थे। वहां से दूध की टंकियां सिर पर रखकर लाया करते थे, जिसे शहर लाकर बेचा जाता था। वे बताते हैं कि बचपन के कुछ पल उन्होंने हरियाणा में भी बिताए हैं। हरियाणा के भिवानी कस्बे में `पीलिया जोहड़´ पर हुक्का पीना आज भी याद है। करीब 66 वषीüय शर्मा ने बताया कि उक्त जोहड़ में पीलिया रोगी को यदि स्नान करवाया जाए तो वह रोगमुक्त हो जाता है। पुराने समय से पीलिया पीडि़त लोग वहां रोगमुक्त होने के लिए आ रहे हैं। बकौल प्यारेलाल शर्मा आज रात-रातभर लोग जागते रहते हैं। कोई सैर करने के लिए तो कोई पाटिüयों में घूमता नजर आता है। तब तो शाम सात-आठ बजे ही लोग सो जाया करते थे। आज महंगाई का दौर है तो कमाई भी बढ़ी है। वे बताते हैं कि इंसान को महंगाई के इस दौर में अनावश्यक खर्च पर कंट्रोल करना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई परेशानी का सामना न करना पड़े।सिर पर रखकर लाया करते थे दूध की टंकियां

मोहल्लेवालों के एकमत से रखी गई थी हनुमान मंदिर की नींव


इंसान का अतीत से जुड़ाव तो हमेशा ही रहता है और अतीत में लौटना कई बार अच्छा भी लगता है। अतीत यादों का वो पिटारा है, जिसे चाहकर भी नहीं भुलाया जा सकता। उम्र के 87वें वर्ष में प्रवेश कर चुके ज्ञानचंद नागपाल ने बताया कि 1947 के वक्त जब हालात तनावपूर्ण हो गए थे, तब पाकिस्तान में एक मुसलिम व्यक्ति ने उनकी मदद की थी। जिसकी बदौलत वे सही-सलामत भारत पहुंचे, तो कैसे भूल जाएं अतीत को। पाकिस्तान के बहावलपुर में जन्मे ज्ञानचंद नागपाल वर्तमान में एल ब्लॉक में रह रहे हैं। उनके दो पुत्र व पांच पुत्रियां हैं। पौते-पौतियों के साथ कभी घर में तो कभी पार्क में मनोरंजन करना उन्हें अच्छा लगता है। वे बताते हैं कि आज तो चार-चार मंजिला कोठियां बनी हुई हैं, तब गारे से बने घरों में लोग रहा करते थे। वे बताते हैं कि 1953-54 हनुमान मंदिर के स्थान पर एक डिग्गी हुआ करती थी, जो थोड़े समय बाद बंद हो गई। इसके बाद यहां रह रहे लोगों ने उक्त स्थान पर हनुमान मंदिर बनवाने के लिए प्रस्ताव रखा। धामिüक स्थल के नाम पर किसी ने आपçत्त नहीं जताई। उन्होंने बताया कि क्षेत्र में रेलवे स्टेशन रोड स्थित सिंहसभा गुरुद्वारा सबसे पुराना है। जब वे छोटे-छोटे हुआ करते थे, तबसे इस गुरुद्वारे को देखते आ रहे हैं। बकौल ज्ञानचंद नागपाल आज क्षेत्र में श्रद्धा व आस्था का जो भाव है, उसके देखने मन को खुशी मिलती है। आपसी सद्भाव और एकता से इंसान बहुत कुछ कर सकता है। बीते वक्त मेंे कुछ लम्हें ऐसे भी हैं, जिन्हें वे भुला देना ही उचित समझते हैं, वह चाहे भारत-पाक बंटवारा हो या फिर दंगों का समय।

तब तो आठवीं पास भी तहसीलदार लग जाया करता था


करीब 85 वषीüय गुरबख्शसिंह के हाव-भाव देखने से यह कोई नहीं कह सकता कि वे बुजुर्ग हैं। पाकिस्तान के लाहौर में जन्मे गुरबख्शसिंह उम्र के इस पड़ाव में भी चुस्त-दुरुस्त हैं। वे बताते हैं कि पुराने समय का खाया-पीया आज काम आ रहा है तभी तो 85 वर्ष की उम्र में भी अंदर से बुजुगाüवस्था का अहसास नहीं होता। सात भाषाओं का ज्ञान रखने वाले गुरबख्शसिंह ने बताया कि आज तो ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार घूम रहे हैं, तब तो 8वीं पास भी तहसीलदार लग जाया करता था। वे बताते हैं कि आज तो बच्चे पढ़ने के लिए घर-परिवार से दूर चले जाते हैं, लेकिन पहले ऐसा प्रचलन ना मात्र था। उन्होंने बताया कि करीब 40-50 साल पहले कच्ची ईंटों का इस्तेमाल किया जाता था। एक ईंट का वजन करीब 6 किलो होता था। ऐसा नहीं है कि मकान ढह जाया करते थे, भवन निर्माण में मजबूती तब भी होती थी। छतों पर लकड़ी की बçल्लयों व `काना´ का इस्तेमाल किया जाता था। आज जहां माबüल तकनीक हर घर में नजर आ जाती है, तब पक्के फर्श का रिवाज नहीं था। हंसमुख स्वभाव के गुरबख्शसिंह बताते हैं कि माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई परोपकार नहीं है। किसी गरीब को के पहनावे को देखकर दुत्कारना नहीं चाहिए, वक्त जब बदलता है तो इंसान उसी दहलीज पर आ खड़ा होता है, जिसे वो कभी ठोकर मारकर चला गया था। उन्होंने बताया कि कोई उनसे गुजरे जमाने की बातें सुनने आता है तो बहुत अच्छा महसूस होता है। बुजुगाüवस्था में ज्यादातर लोगों को गुजरना पड़ता है, इसलिए ऐसे कर्म करने चाहिए कि बुढ़ापा भी अच्छे ढंग से व्यतीत हो जाए।

गर्वमेंट गल्र्स कॉलेज की जगह होती थी पुलिस लाइन


गुजरे दिन की यादें नितांत अकेलेपन की उदासी को कम करती हैं। इसलिए उनके साथ जुड़ाव बनाए रखना चाहिए। करीब 76 वषीüय महेंद्र सेठी बताते हैं कि कई दफा अकेलापन खाने को दौड़ता है, तो पुरानी बातें याद आती हैं। यदि कोई पुराने समय के बारे में पूछे तो इसका अलग ही आनंद है। जवाहरनगर स्थित सात नंब्ार सेक्टर निवासी महेंद्र सेठी ने अनुभवों व यादों को साझा करते हुए बताया कि आज तो अनेक प्रकार की सçब्जयां घर में बनाई जाती हैं, तब केवल आलू-प्याज, कड़ी व दाल ही बनाया करते थे। वे बताते हैं कि 1960 में गर्वमेंट गल्र्स कॉलेज की जगह पुलिस लाइन हुआ करती थी। प्राचीन शिवालय में जमींदार रुका करते थे। उन्होंने बताया कि तब धनाढ्य लोगों के यहां कुएं हुआ करते थे, जहां कई लोगों को पीने के लिए पानी मिलता था। बड़ा मंदिर स्कूल के समीप भी दो बड़े कुएं हुआ करते थे। गंगनहर आने से पहले यहां के लोग गुमजाल से पानी लेने के लिए जाया करते थे। ऊंट-बैलगाडि़यों पर पानी लादकर यहां लाया जाता था। आवागमन के साधन आज के मुकाबले बहुत कम थे। ज्यादातर लोग पैदल या साइकिल पर आते-जाते थे। धनाढ्य वर्ग घोड़े पालते थे, जिनके जरिए रिश्तेदारों व अन्य जगहों पर आना-जाना होता था। कई लोगों के पास बग्गी भी हुआ करती थी। आज लग्जरी कारों पर बैठने में लोग अपनी शान समझते हैं, तब बग्गी व घोड़ों पर बैठना शान समझा जाता था। वे कहते हैं कि आज वक्त बदल चुका है, पहले साधारण रहन-सहन था, अब नई टैçक्नकों की भांति लोग जीवन-यापन में भी परिवर्तन करते जा रहे हैं।

तब पाकोZ की जगह खेतों में हुआ करती थी सैर


बीते-गुजरे लम्हों की सारी बातें, यदि याद करें तो तड़फाती भी हैं और खुद को संभलने में मदद भी करती हैं। मिजेüवाला स्थित चक 12 क्यू निवासी मुख्त्यारसिंह 75 वर्ष की उम्र में भी घर के कई कामों को निपटाने लेते हैं। उम्र इनके किसी भी काम में आड़े नहीं आती। पुरानी यादों को कुदरेते हुए मुख्त्यारसिंह ने बताया कि आज खेती के लिए जमीने समतल हैं, लेकिन तब ऐसा नहीं थी। क्षेत्र के किसान परिवारों ने वक्त के साथ-साथ जमीनों को समतल किया। वे बताते हैं कि तब खेती वषाü के पानी पर ही निर्भर होती थी। पीने के पानी के लिए भी लोगों को जुगाड़ करना पड़ता था। सैर करने के लिए आज कस्बे में जहां पाकोZ का उपयोग किया जाता है, तब खेतों की हरियाली के बीच सुबह-सुबह घूमा करते थे। तली हुई चीजों को लोग बहुत कम खाते थे। आज व्यंजन के नाम पर सेहत से खिलवाड़ हो रहा है। तली हुई बाजार की वैरायटियां स्वास्थ्य के लिए कितनी हानिकारक हैं, इसका अंदाजा तब लगता है जब छोटी-छोटी कई बीमारियां इंसान को चपेट में ले लेती हैं। वे बताते हैं कि तब खिचड़ी-दलिया आदि विशेष व्यंजनों में आते थे। त्यौहार या अन्य किसी विशेष अवसर पर खीर, दलिया जैसी वैरायटियां बनाई जाती थीं। नाश्ते सहित दिन में तीन बार रोटी खाने का प्रचलन भी थोड़े समय से ही शुरू हुआ है, तब तो सुबह घर से निकलने से पहले व शाम को खाना खाया करते थे। मुख्त्यारसिंह कहते हैं कि आज सुविधाओं में बढ़ोत्तरी हुई, जो कुछ हद तक भविष्य के लिए फायदेमंद हैं।

Saturday, January 31, 2009

घंटों तक टिब्बों के बीच फंसी रहती थी ट्रेन


आज व्यर्थ के ख्ार्च और दुनिया की विलासिता ने इंसान के जीवन में बड़ा परिवर्तन लाकर खड़ा कर दिया है। दिन-रात की मेहनत और भागदौड़ के बावजूद आर्थिक संतुष्टि कहीं देखने को नहीं मिलती। उम्र के 73वें वर्ष में प्रवेश कर चुके करणपुर निवासी देवप्रकाश शर्मा कहते हैं कि मेहनत हर इंसान फितरत में होनी चाहिए, लेकिन लालसा का त्याग करना भी सीखना चाहिए। करीब 55-60 साल पुरानी बातों का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि तब 100 रुपए खुले करवाने के लिए न जाने कितनी दुकानों पर भटकना पड़ता था, बहुत कम लोग ऐसे होते थे, जिनकी जेब में 100 रुपए हों। आज तो बच्चे की पॉकेट में भी 1000 रुपए होना आम बात है। वे बताते हैं कि सन् 1974 में उन्होंने बच्चों को दूध पिलाने के लिए 20 रुपए में बकरी खरीदी थी, लेकिन आज तो 20 रुपए में एक लीटर दूध ही आता है। 1956-57 में 75 रुपए माह के वेतन पर कार्य करने वाले शर्मा बताते हैं कि तब रेलवे स्टेशन के आसपास रेतीले टिब्बे हुआ करते थे, जिनकी धूल से घंटों तक रेल यातायात बाधित हो जाया करता था। वो दिन आज भी याद हैं, मैं और मेरे मित्र मिट्टी में फंसी ट्रेन को अक्सर देखा करते थे। रेलवे बुकिंग क्लर्क के पद से सेवानिवृत्त देवप्रकाश शर्मा इस उम्र में भी प्रतिदिन सुबह जल्दी उठकर पानी पीते हैं और निकल पड़ते हैं सैर के लिए। सूरज निकलते-निकलते वे कई काम निपटा लेते हैं।

1957 के बाद हुआ था 100 पैसे का एक रुपया


बुजुगाüवस्था में हमारी बातें शायद कुछ लोगों को कड़वी लगें, लेकिन मेरे जैसे उम्रदराज लोगों के पास बहुत से ऐसे अनुभव हैं, जिसके जरिए मनुष्य समाज में नए आयाम स्थापित कर सकता है। यह कहना है कि 75 वषीüय मोतीलाल शर्मा का। विनोबा बस्ती निवासी शर्मा बताते हैं कि बचपन के वक्त एक-दो आना में दिनभर मौज-मस्ती किया करते थे। सस्ते जमाने में घर में ही दूध, घी व मक्खन खाने को मिल जाया करते थे। वे बताते हैं कि 1957 के बाद से 100 पैसे का एक रुपए हुआ था, उससे पहले पैसे को `आना´ में आंका जाता था। जमीनों के भाव तो बहुत ही कम हुआ करते थे, लेकिन लोगों के पास आबियाना चुकाने के लिए पैसे नहीं होते थे। वे बताते हैं कि करीब 50 साल पहले गंगानगर में आज के मुकाबले यातायात के साधन शून्य हुआ करते थे। कहीं भी आना-जाना होता था तो ऊंटगाड़े का इस्तेमाल किया करते थे। शहर भर में ऊंटगाड़ा दौड़ाना आज भी याद है। जगह-जगह टिब्बे हुआ करते थे। न तो भारी वाहनों का शोर और न ही ट्रैफिक अव्यवस्था जैसी समस्या। आज तो रात-रात भर लोग घूमते रहते हैं, तब शाम ढलते ही सोने की तैयारी कर लिया करते थे। आज तो मनोरंजन के साधनों का अथाह भंडार है, लेकिन तब ऐसा नहीं था। हरियाणा में जन्मे शर्मा आज भी शहर में अपने मित्रों से मिलने के लिए पैदल ही निकल लेते हैं और उनके साथ बैठकर पुरानी यादों को ताजा करते हैं। शर्मा बीते लम्हों को आइने में बरकरार रखना चाहते हैं।

Friday, January 30, 2009

`फरियादी की पीड़ा भांपने में माहिर थे महाराजा गंगासिंह´


वो जमाना अब कहां। ना तो वैसा न्याय और ना ही आपसी प्रेमभाव। करीब 76 वषीüय आढ़त व्यवसायी राकेशचंद्र अग्रवाल गुजरे जमाने को भूले नहीं और उसे अपने ही अंदाज में बयां करते हैं। वे बताते हैं कि जब वे 12-13 साल के थे, तब महाराजा गंगासिंह गंगानगर आए तो रेलवे स्टेशन पर बेतहाशा भीड़ थी। बकौल अग्रवाल उक्त समय उनकी स्काउट के रूप में स्टेशन पर ड्यूटी लगी थी। स्टेशन के नजदीक ही महाराजा गंगासिंह के बैठने हेतु चांदी की कुर्सी लगी हुई थी। महाराजा के ट्रेन से उतरने पर फरियादी उनसे मिलने को आतुर थे तो वहां तैनात पुलिस ने उन्हें रोक लिया। फरियादी की पीड़ा को भांपने में माहिर महाराजा गंगासिंह ने फरियादियों को उनसे मिलने की इजाजत दी। वे बताते हैं तब फरियादी की जायज पीड़ा के लिए महाराजा तुरंत उसे राहत देने के आदेश देते थे और हाथों-हाथ न्याय मिल जाया करता था। आज वक्त बदल चुका है। रंग-बिरंगी दुनिया है और भांत-भांत के लोग। वे बताते हैं कि बंटवारे के वक्त शरणार्थियों को खाने के लिए घर से भूने हुए चने बांटना उन्हें आज भी याद है। आज स्वार्थ हावी है। पाश्चात्य संस्कृति को तरक्की में बाधा मानते हुए अग्रवाल बताते हैं कि यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। कपड़ों का उपयोग बदन ढकने के लिए कम, फैशन के लिए ज्यादा किया जाने लगा है। युवाओं से उम्मीद के बल पर टिके देश के लिए बढ़ती नशे की प्रवृçत्त परेशानी का कारण है।

तब पुरानी आबादी सब्जी मंडी की जगह `छप्पड़´ हुआ करता था


कहते हैं कि इंसान जब 100 साल का हो जाता है, तो इस उपरांत उसमें बचपन की झलक नजर आने लगती है। जिस तरह बचपन बिताया, ठीक उसी प्रकार उम्र के इस पड़ाव में व्यक्ति की अंतराüत्मा अनजान व निश्चित प्रतीत होने लगती है। करीब 100 वषीüय मोहनलाल धींगड़ा का शरीर अब पहले जितना साथ नहीं देता, लेकिन उनके लबों से निकलने वाला हरेक लफ्ज यह बयां करता है कि वे आज भी बहुत कुछ करने में समक्ष हैं। पुरानी आबादी (धींगड़ा स्ट्रीट) निवासी धींगड़ा के अनुसार करीब 40-50 साल पहले वे निकटवतीü गांव कोठा में रहा करते थे, तब शहर गंगानगर साइकिल के जरिए आया करते थे। सरकारी सेवा से रिटायर धींगड़ा बताते हैं कि कभी-कभी साइकिल खराब हो जाती थी तो पैदल ही शहर से गांव आया-जाया करते थे। वे बताते हैं कि आज पुरानी आबादी में जहां सब्जी मंडी लगा करती है, तब यहां पशुओं के लिए छप्पड़ (पानी का तालाब) हुआ करता था। लोग यहां पशुओं को नहलाया करते थे। धीरे-धीरे विकास होता गया और यहां सड़क मार्ग व सब्जी मंडी बन गई। बकौल मोहनलाल धींगड़ा तब शहर को रामनगर के नाम से पुकारा जाता था, जब यहां गंगनहर लाई गई, फिर शहर का नाम गंगानगर रखा गया। भारत-पाक बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थियों को कोठा गांव में चने, गुड व दूध खिलाकर सुबह गंतव्य के लिए रवाना कर दिया करते थे। वे कहते हैं कि जब कोई मुसीबत में हो तो जात-पात व धर्म को एक बार छोड़ देना चाहिए और इंसानियत की राह पर कदम बढ़ाते हुए मदद के लिए आगे आना चाहिए।

Thursday, January 29, 2009

`मशीन वाला ठेला´ देखकर हैरान रह गए थे लोग

वो भी वक्त ही था, जब लोगों कोसों दूर तक पैदल या फिर बैलगाड़ी के सहारे से आया-जाया करते थे, लेकिन आज तो बच्चों को पढ़ने जाने के लिए भी मोटरसाइकिल चाहिए। उम्र के 77वें वर्ष में प्रवेश कर चुके करणपुर निवासी कश्मीरीलाल डंग आज के समय हो रहे अनावश्यक खचेü को आने वाले कल की बबाüदी मानते हैं। हिंदी, पंजाबी व उदूü सहित कई अन्य भाषाओं के जानकार कश्मीरीलाल बीते कल को यादों के रूप में समेटे हुए हैं। करीब पचास साल पहले की बातों को छेड़ते हुए वे कहते हैं कि बैलगाड़ी के अलावा आवागमन का कोई प्रमुख साधन नहीं हुआ करता था। उनके कस्बे में पहली बार जीप को सांसद बारूपाल लाए थे, जिसके देखकर लोग हैरान रह गए और लोगों ने उसे `मशीन वाला ठेला´ नाम दिया। काफी समय तक लोग जीप को मशीन वाला ठेला कहा करते थे, बाद में जीप नाम का इस्तेमाल किया जाने लगा। वे बताते हैं कि आज चुनावों पर जो खर्च हो रहा है, पहले ऐसा नहीं था। ना तो विवाद होता था और ना ही प्रचार के लिए इतना खर्च। तब तो हाथ खड़ा करके सरपंच चुन लिया जाता था। प्रतिद्वंद्वता जैसी स्थिति कम देखने को मिलती थी। उन्होंने बताया कि 18 साल की उम्र में उनका विवाह हुआ था और 26वें साल तक वे पांच बच्चों के पिता बन चुके थे। तब बड़े परिवार का आसानी से पालन-पोषण हो जाया करता था, लेकिन आज के समय में ऐसा संभव नहीं है। परिवार जितना छोटा हो, उतना ही सुखी रहता है।

सोने का भाव 40 रुपए था, फिर भी खरीदार कम थे


सब मिलजुल कर रहते थे। न तो कोई किसी जात से घृणा करता था और न ही किसी धर्म से। फिर भी न जाने क्यूं भारत-पाक बंटवारे के वक्त कत्ल-ए-आम हुआ। शायद वो वक्त की बेहरहमी ही थी। करीब 87 वषीüय सरस्वती देवी से जब कोई पुराने समय की बात करता है तो वे बंटवारे के समय की आपबीती बताने से नहीं चूकतीं। वे बताती हैं कि पाकिस्तान के बहावलनगर में हनुमान जी का मंदिर हुआ करता था, जहां बड़ी श्रद्धा व उल्लास के साथ लोग कीर्तन के लिए एकत्रित हुआ करते थे, जो आज भी याद है। उन्होंने बताया कि उनकी शादी के वक्त सोने का भाव 40 रुपए तोला हुआ करता था, लेकिन खरीदने वालों की कमी थी। बड़े सस्ते व टिकाऊ जमाने में एक रुपए का पांच किलो गुड़ व दो रुपए किलो काजू आ जाया करते थे। बकौल सरस्वती देवी 1947 में वे परिवार सहित भारत आईं। तब यहां चुनिंदा घर हुआ करते थे। वे बताती हैं कि महाराजा गंगासिंह की रियासत के समय लूटपाट-अन्याय के भय जैसी कोई चीज नहीं हुआ करती थी। आजकल तो कदम-कदम पर खौफ है। तब महाराजा गंगासिंह गणगौर जी की सवारी के दौरान लोगों से मुखातिब हुआ करते थे। वे हर किसी का सम्मान करते थे और लोगों के दिलों में भी उनके प्रति आदर भाव था। वे बताती हैं कि आज वक्त बहुत बदल चुका है, बुजुगोZ के प्रति लोगों का रवैया भी बदला है। नाती-पोतों वाली सरस्वती देवी सिविल लाइंस स्थित अपने पुत्र के साथ क्वार्टर में रह रही हैं। उन्हें बच्चों व महिलाओं से पुराने समय की बातें करना बहुत अच्छा लगता है।

Tuesday, January 20, 2009

घर की रिड़की हुई लस्सी और मक्खन अब कहां...

अतीत में डूबना कुछ हद तक तो सामान्य बात है, लेकिन अधिकांश समय तक अतीत में डूबे रहना भी ठीक नहीं। बात जब बुजुçर्गयत की चली तो 76 वषीüय बलवंतसिंह çढल्लों ने बताया कि पुराने समय को इंसान ज्यादा याद न करे, लेकिन उसे भूला देना भी उचित नहीं है। गांव से जुड़े लम्हों को यादों में समेटे बलवंतसिंह बताते हैं कि भारत-पाक बंटवारे के बाद वे पंजाब आकर रहने लगे, इसके बाद श्रीगंगानगर में घर बना लिया। मीरा चौक निवासी बलवंतसिंह बताते हैं कि मां का घर में लस्सी को रिड़कना और मक्खन निकालकर खिलाना आज भी याद है। लस्सी रिड़कने वाली रंगली मधानी को देखकर पास बैठे बच्चों के मुंह में पानी आ जाता था, क्योंकि मक्खन जो मिलने वाला है। पर अब वो वक्त बीत चुका है। वस्त्र व्यवसायी çढल्लों आज भी टू-व्हीलर पर शहर ही नहीं बल्कि नजदीकी गांवों में अकेले ही घूम आते हैं। बढ़ती उम्र को वे कुछ नहीं समझते, क्योंकि समय पर खाने के मामले में हर वक्त सचेत रहना उनकी आदत है। पौते-पौतियों वाले çढल्लों बताते हैं कि पुराने समय में मां कई बीमारियों का देसी इलाज घर में कर दिया करती थी। लालच से दूरी बनाए रखने के लिए वे कहते हैं कि-

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।

आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।