Tuesday, February 24, 2009

हाफ पेंट, नंगे पांव व हाथ में तख्ती...और चल दिए स्कूल


आंखों में कैद बीत दिनों के हंसी लम्हे, जब इनके बारे में कोई बात करता है तो अच्छा महसूस होता है। यह कहना है करीब 82 वषीüय रमेशचंद्र गुप्ता का। पुरानी आबादी निवासी गुप्ता बताते हैं कि सन् 1935-36 में जब वे स्कूल जाते थे तो नंगे पांव ही घर से निकल लिया करते थे। हाथ में तख्ती, दस्ता (घर की बनी कॉपी) और हाफ पेंट पहने टहलते-टहलते स्कूल जाना आज भी याद है। उन्होंने बताया कि लिखने के लिए चाकू के जरिए बनछटियों की कलम बनाते थे। तब तो सातवीं कक्षा भी बोर्ड की होती थी, जिसका पेपर जयपुर में हुआ करता था। धीरे-धीरे बहुत कुछ बदल गया। उन्होंने बताया कई लोग बग्गी, तांगे व इक्के (चौकोर घोड़ा गाड़ी) का इस्तेमाल आवागमन के लिए करते थे। बकौल गुप्ता विवाह की रस्मे भी अजीब होती थी। लड़की वालों को यदि लड़का पसंद आ गया तो हाथों-हाथ माथे पर तिलक लगाया, एक रुपया लड़के के हाथ में रखा और रिश्ता पक्का। गुप्ता ने बताया कि सस्ता जमाने में 1948 को जब उनकी शादी का कुल खर्च 550 रुपए आया था। आठ रुपए एक माह की पगार हुआ करती थी, फिर भी घर चलाने में ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। क्योंकि खर्च सीमित थे। आज की शिक्षा व्यवस्था से आहत गुप्ता बताते हैं कि करीब 1950 से पहले स्कूलों का निरीक्षण करने की जरूरत एसडीएम-तहसीलदार को नहीं पड़ती थी, लेकिन बाद में अनियमितताओं के कारण ऐसा प्रचलन शुरू हो गया। मिड-डे-मील योजना के कारण स्कूल शिक्षा का मंदिर कम रसोई घर ज्यादा नजर आता है।

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