Sunday, February 15, 2009
`चाहकर भी नहीं भुला पाई बीते दिन´
अचानक घरों पर पत्थर बरसते देख धड़कनें बढ़ गई। जब खिड़की से बाहर की ओर देखा तो लोगों का झुंड घर को घेरे हुए था। घर वालों में खुसर-फुसर होने लगी। माजरा जब तक समझ में आता इतने में ही परिवार के बड़ों ने गुपचुप रूप से घर छोड़ने का निर्णय ले लिया। पदमपुर के निकटवतीü गांव 6 सीसी की 80 वषीüय हरबंसकौर भारत-पाक बंटवारे के दिन चाहकर भी नहीं भुला पाई हैं। उन्होंने बताया कि जब बंटवारे का ऐलान हुआ तो वे बहुत छोटी थीं। नाजुक हालातों में एक रात उनका परिवार भारत जाने वाले काफिले में शामिल हो गया। रास्ते में लाशों के ढेर लगे हुए थे। उन्होंने बताया कि काफिले में बैलगाडि़यों पर सवार लोगों की रक्षा के लिए सिख सैनिकों ने उन पर घेरा डाला हुआ था। करीब 28 दिन की जद्दोजहद के बाद वे भारत पहुंचे। थोड़ा बहुत सोना व खाने का सामान उन्हें साथ में लिया था, लेकिन बीच रास्ते में सोना भी खोना पड़ा। तब लोगों को सिर्फ अपनी जान की चिंता थी, पैसा-कपड़ा कोई नहीं संभाल रहा था। हरबंसकौर बताती हैं कि ऐसा समय दोबारा न आए इसके लिए वे अकसर ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। वे बताती हैं कि तब जुबान की कीमत सबसे अधिक होती थी, लेकिन आज ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। वक्त के साथ-साथ समाज के लोगों में बदलाव देखने को मिला है। रहन-सहन के ढंग व पहनावे में जो अंतर आया है, कई बार वो संस्कृति पर कुठाराघात नजर आता है, लेकिन इंसान को समय के साथ ही चलना पड़ता है।
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