
करीब 85 वषीüय गुरबख्शसिंह के हाव-भाव देखने से यह कोई नहीं कह सकता कि वे बुजुर्ग हैं। पाकिस्तान के लाहौर में जन्मे गुरबख्शसिंह उम्र के इस पड़ाव में भी चुस्त-दुरुस्त हैं। वे बताते हैं कि पुराने समय का खाया-पीया आज काम आ रहा है तभी तो 85 वर्ष की उम्र में भी अंदर से बुजुगाüवस्था का अहसास नहीं होता। सात भाषाओं का ज्ञान रखने वाले गुरबख्शसिंह ने बताया कि आज तो ग्रेजुएट-पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार घूम रहे हैं, तब तो 8वीं पास भी तहसीलदार लग जाया करता था। वे बताते हैं कि आज तो बच्चे पढ़ने के लिए घर-परिवार से दूर चले जाते हैं, लेकिन पहले ऐसा प्रचलन ना मात्र था। उन्होंने बताया कि करीब 40-50 साल पहले कच्ची ईंटों का इस्तेमाल किया जाता था। एक ईंट का वजन करीब 6 किलो होता था। ऐसा नहीं है कि मकान ढह जाया करते थे, भवन निर्माण में मजबूती तब भी होती थी। छतों पर लकड़ी की बçल्लयों व `काना´ का इस्तेमाल किया जाता था। आज जहां माबüल तकनीक हर घर में नजर आ जाती है, तब पक्के फर्श का रिवाज नहीं था। हंसमुख स्वभाव के गुरबख्शसिंह बताते हैं कि माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई परोपकार नहीं है। किसी गरीब को के पहनावे को देखकर दुत्कारना नहीं चाहिए, वक्त जब बदलता है तो इंसान उसी दहलीज पर आ खड़ा होता है, जिसे वो कभी ठोकर मारकर चला गया था। उन्होंने बताया कि कोई उनसे गुजरे जमाने की बातें सुनने आता है तो बहुत अच्छा महसूस होता है। बुजुगाüवस्था में ज्यादातर लोगों को गुजरना पड़ता है, इसलिए ऐसे कर्म करने चाहिए कि बुढ़ापा भी अच्छे ढंग से व्यतीत हो जाए।
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