Monday, February 16, 2009

ऊंटों पर निकलती थी बारात


बुजुगाüवस्था भी बचपन की तरह नादान और अन्जान होती है। इंसान के मन में किसी चीज को पाने का लालच मानो समाप्त हो जाता है। उम्र के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके मनोहर भुंवाल ने जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि आज के समय में बहुत परिवर्तन आ चुका है। आज जहां घोडि़यों-कारों पर बारात निकलती है, लेकिन तब तो ऊंटों पर दूल्हा सेहरा बांधकर बैठता था। लड़की के घर बारात 2-3 तीन तक रुकती थी। अब तो दोपहर को जाओ शाम को बारात पुन: घर आ जाती है। रस्मों-रिवाज में भी कटौती हुई है। उन्होंने बताया कि तब तो भेड़ों की ऊन से बनी दरियां मेहमानों के बैठने के लिए बनाई जाती थीं। मेहमाननवाजी का तरीका ही अलग होता था। बिना ड्रेस के स्कूल जाते थे। घर का बना स्कूल बैग और उसमें तख्ती व कलम होती थी। न तो आज के मुताबिक किताबों का भार होता था ना ही भारी-भरकम फीस। वे बताते हैं कि तब पुलिसकर्मी बहुत कम दिखाई देते थे। क्योंकि अपराध कम होते थे। जब कभी लोग पुलिसवालों को देखते थे तो घरों के दरवाजे बंद कर लेते थे। वे बताते हैं कि तब जमीन ठेके पर लेनी होती थी तो 300 रुपए में 25 बीघा जमीन ठेके पर मिल जाती थी। मात्र दो रुपए मजदूरी में भी घर चला करते थे। उन्होंने बताया कि 1962 व 1965 के युद्ध में लोग खुद ही घरों के बाहर पहरा लगाया करते थे। आज जिस तरह नशा युवा वर्ग सहित अनेक लोगों के जीवन को बबाüद कर रहा है, लेकिन तब लोग नशे का प्रयोग नहीं करते थे। बुजुर्ग लोग हुक्के का इस्तेमाल करते थे।

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