Monday, February 9, 2009

सुबह के खाने की लस्सी और प्याज की चटनी नहीं भूला...


जिंदगी के बीते दिनों की हंसी यादें जीने की ताकत को बढ़ाने में मदद करती हैं तो फिर कैसे भूल जाएं उन पलों को। उम्र के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके बालकिशन बाघला ने अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि तब इंसान की रंगों में मेहनत के साथ-साथ दिल में आत्मसंतुष्टि भी होती थी। काम-धंधों में आज जो मेहनत लगती है, उतनी तब भी लगा करती थी। लेकिन आज व्यक्ति में सब्र नजर नहीं आता। वे बताते हैं कि सुबह के खाने में लस्सी (छाछ) और प्याज की चटनी आज भी मुंह में पानी ला देती है। बेशक वो घर का सादा खाना हुआ करता था, लेकिन उस जैसा स्वाद अब नहीं मिलता। उन्होंने बताया कि तब तो दूध को बेचना लोग गुनाह समझते थे। यदि किसी को दूध की जरूरत होती थी तो पड़ौसी बिना पैसे के दूध दिया करते थे। सामान लाने-ले जाने के लिए केवल ऊंटगाड़े किराए पर मिलते थे। चार आना (25 पैसे) किराए पर ऊंटगाड़ा चालक सामान को गंतव्य तक पहुंचाते थे। पाकिस्तान के लाला अमरसिंह गांव में जन्मे बाघला बंटवारे के बाद निकटवतीü गांव जगतेवाला में रहने लगे। उन्होंने बताया कि अपने जीवन के दौरान अकाल जैस्ाी आपदा से निपटते हुए लोगों को देखा है। आज जहां इलेक्ट्रोनिक उपकरण के बढ़ते प्रयोग के साथ-साथ नई कंपनियों ने भी पांव जमाकर नौकरियों के द्वार खोले हैं, तब ऐसा नहीं था। तब तो लोग खेती पर ही निर्भर थे। हल चलाकर जो फसल बोई, उससे ही घर-परिवार को चलाया जाता था।

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