Tuesday, February 10, 2009
तब घरों के बाहर लगते थे बांस के सींखचों से बने दरवाजे
कस्बे के गुड़ व्यवसायी महताबसिंह नांरग से जब बीते दिनों के बारे में बात की गई तो वे मुस्कुरा उठे। उन्हाेंने बताया कि 1947 को जब वे यहां आए तो सारा इलाका रेतिला होता था। अंधेरियां से उड़ने वाली धूल-मिट्टी को झेलना तो आदत बन गई थी। वे बताते हैं कि तब क्षेत्र में तंबाकू की खेती होती थी, जो धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अब उनका स्थान अन्य फसलों ने ले लिया है। पुराने समय में सरकार ने आढ़त, हलवाई, गिन्नी व अन्य कायोZ हेतु दुकानें आबंटित की थीं। तत्कालीन जिला बोर्ड कर्मचारी एक माह का छह रुपए किराया लेता था और रसीद दे जाता था। गुड़ काफी तादाद में बनता था, जिसे बेचकर कई लोग घर का गुजारा करते थे। आज जहां नए-नए डिजाइनों के लकड़ी के दरवाजों का इस्तेमाल होता है, तब लोहे के टीन व बांस के सींखचों से दरवाजे बनाए जाते थे। प्रत्येक घर के बाहर ऐसे ही दरवाजे देखने को मिलते थे। आज की तरह पैसे के लिए भागदौड़ तब नहीं होती थी। बंटवारे के बाद पाकिस्तान से भारत आने पर घर बनाने के लिए दिक्कतों का सामना करना पड़ा, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। 1959 में 1900 रुपए में मकान खरीदा। वे बताते हैं कि उन दिनों की तरह अपनापन व ईमानदारी अब बहुत कम देखने को मिलती है। ज्यादातर लोग कच्चे घरों में ही रहते थे। आय के साधन आज के मुकाबले बहुत ही कम थे।
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