Sunday, March 1, 2009
लुप्त हो रहा है चरखा कातने का प्रचलन
अकसर जब उन रास्तों से गुजरता हूं, जहां बचपन बिताया, तो लगता है कि वो सड़कें रूठी हुई हैं और खेलने के लिए फिर से बुला रही हैं। जागती रातों का दीवारों को ताकना मानो बीते लम्हों को याद दिला रहा है। उम्र के 70वें वर्ष में प्रवेश कर चुके एच-ब्लॉक निवासी मनजीतसिंह बताते हैं कि अतीत में बचपन का भी कुछ हिस्सा है, जो चाहकर भी नहीं भुला पाता। कपड़ों की बनी दड़ी (गेंद) से मार-धाड़ खेलना और अंधेरा होने पर कभी-कभार घरवालों की डांट सहना, बड़े अच्छे दिन थे वो। उन्होंने बताया कि पुराने समय में महिलाएं चरखा कातती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। चरखा कातना अत्यंत रोचक दृश्य होता था। रिटायर्ड हैडमास्टर मनजीतसिंह ने बताते हैं कि तब गे्रजुएट के लिए तो सरकारी नौकरी घर चलकर आती थी, लेकिन आज पोस्ट-ग्रेजुएट भी वंचित हैं। उन्होंने भी शिक्षा विभाग के दफ्तर में पढ़ाई संबंधी दस्तावेज दिखाए और उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। आज तो अनेक प्रकार के कंपीटीशन से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान ही बीएड की, जिसके बाद उन्नति मिली। बचपन में मां कहानी-लोरी सुनाकर बच्चों को सुलाया करती थी, आज वो प्रचलन नहीं है। आज तो मां-बाप बच्चों को मोबाइल की रिंगटोन सुनाकर चुप कराते हैं। पुराने समय में ऐसी कल्पना नहीं की थी कि कभी ऐसा समय आएगा, जब बिना तारों के लोग मीलों दूरी तक बातें कर सकेंगे। जो समय बीत गया तो वो लौटकर नहीं आ सकता है, लेकिन जब बीत दिनों के बारे में कोई पूछता है तो अच्छा महसूस होता है।
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