Saturday, January 31, 2009

घंटों तक टिब्बों के बीच फंसी रहती थी ट्रेन


आज व्यर्थ के ख्ार्च और दुनिया की विलासिता ने इंसान के जीवन में बड़ा परिवर्तन लाकर खड़ा कर दिया है। दिन-रात की मेहनत और भागदौड़ के बावजूद आर्थिक संतुष्टि कहीं देखने को नहीं मिलती। उम्र के 73वें वर्ष में प्रवेश कर चुके करणपुर निवासी देवप्रकाश शर्मा कहते हैं कि मेहनत हर इंसान फितरत में होनी चाहिए, लेकिन लालसा का त्याग करना भी सीखना चाहिए। करीब 55-60 साल पुरानी बातों का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि तब 100 रुपए खुले करवाने के लिए न जाने कितनी दुकानों पर भटकना पड़ता था, बहुत कम लोग ऐसे होते थे, जिनकी जेब में 100 रुपए हों। आज तो बच्चे की पॉकेट में भी 1000 रुपए होना आम बात है। वे बताते हैं कि सन् 1974 में उन्होंने बच्चों को दूध पिलाने के लिए 20 रुपए में बकरी खरीदी थी, लेकिन आज तो 20 रुपए में एक लीटर दूध ही आता है। 1956-57 में 75 रुपए माह के वेतन पर कार्य करने वाले शर्मा बताते हैं कि तब रेलवे स्टेशन के आसपास रेतीले टिब्बे हुआ करते थे, जिनकी धूल से घंटों तक रेल यातायात बाधित हो जाया करता था। वो दिन आज भी याद हैं, मैं और मेरे मित्र मिट्टी में फंसी ट्रेन को अक्सर देखा करते थे। रेलवे बुकिंग क्लर्क के पद से सेवानिवृत्त देवप्रकाश शर्मा इस उम्र में भी प्रतिदिन सुबह जल्दी उठकर पानी पीते हैं और निकल पड़ते हैं सैर के लिए। सूरज निकलते-निकलते वे कई काम निपटा लेते हैं।

1957 के बाद हुआ था 100 पैसे का एक रुपया


बुजुगाüवस्था में हमारी बातें शायद कुछ लोगों को कड़वी लगें, लेकिन मेरे जैसे उम्रदराज लोगों के पास बहुत से ऐसे अनुभव हैं, जिसके जरिए मनुष्य समाज में नए आयाम स्थापित कर सकता है। यह कहना है कि 75 वषीüय मोतीलाल शर्मा का। विनोबा बस्ती निवासी शर्मा बताते हैं कि बचपन के वक्त एक-दो आना में दिनभर मौज-मस्ती किया करते थे। सस्ते जमाने में घर में ही दूध, घी व मक्खन खाने को मिल जाया करते थे। वे बताते हैं कि 1957 के बाद से 100 पैसे का एक रुपए हुआ था, उससे पहले पैसे को `आना´ में आंका जाता था। जमीनों के भाव तो बहुत ही कम हुआ करते थे, लेकिन लोगों के पास आबियाना चुकाने के लिए पैसे नहीं होते थे। वे बताते हैं कि करीब 50 साल पहले गंगानगर में आज के मुकाबले यातायात के साधन शून्य हुआ करते थे। कहीं भी आना-जाना होता था तो ऊंटगाड़े का इस्तेमाल किया करते थे। शहर भर में ऊंटगाड़ा दौड़ाना आज भी याद है। जगह-जगह टिब्बे हुआ करते थे। न तो भारी वाहनों का शोर और न ही ट्रैफिक अव्यवस्था जैसी समस्या। आज तो रात-रात भर लोग घूमते रहते हैं, तब शाम ढलते ही सोने की तैयारी कर लिया करते थे। आज तो मनोरंजन के साधनों का अथाह भंडार है, लेकिन तब ऐसा नहीं था। हरियाणा में जन्मे शर्मा आज भी शहर में अपने मित्रों से मिलने के लिए पैदल ही निकल लेते हैं और उनके साथ बैठकर पुरानी यादों को ताजा करते हैं। शर्मा बीते लम्हों को आइने में बरकरार रखना चाहते हैं।

Friday, January 30, 2009

`फरियादी की पीड़ा भांपने में माहिर थे महाराजा गंगासिंह´


वो जमाना अब कहां। ना तो वैसा न्याय और ना ही आपसी प्रेमभाव। करीब 76 वषीüय आढ़त व्यवसायी राकेशचंद्र अग्रवाल गुजरे जमाने को भूले नहीं और उसे अपने ही अंदाज में बयां करते हैं। वे बताते हैं कि जब वे 12-13 साल के थे, तब महाराजा गंगासिंह गंगानगर आए तो रेलवे स्टेशन पर बेतहाशा भीड़ थी। बकौल अग्रवाल उक्त समय उनकी स्काउट के रूप में स्टेशन पर ड्यूटी लगी थी। स्टेशन के नजदीक ही महाराजा गंगासिंह के बैठने हेतु चांदी की कुर्सी लगी हुई थी। महाराजा के ट्रेन से उतरने पर फरियादी उनसे मिलने को आतुर थे तो वहां तैनात पुलिस ने उन्हें रोक लिया। फरियादी की पीड़ा को भांपने में माहिर महाराजा गंगासिंह ने फरियादियों को उनसे मिलने की इजाजत दी। वे बताते हैं तब फरियादी की जायज पीड़ा के लिए महाराजा तुरंत उसे राहत देने के आदेश देते थे और हाथों-हाथ न्याय मिल जाया करता था। आज वक्त बदल चुका है। रंग-बिरंगी दुनिया है और भांत-भांत के लोग। वे बताते हैं कि बंटवारे के वक्त शरणार्थियों को खाने के लिए घर से भूने हुए चने बांटना उन्हें आज भी याद है। आज स्वार्थ हावी है। पाश्चात्य संस्कृति को तरक्की में बाधा मानते हुए अग्रवाल बताते हैं कि यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। कपड़ों का उपयोग बदन ढकने के लिए कम, फैशन के लिए ज्यादा किया जाने लगा है। युवाओं से उम्मीद के बल पर टिके देश के लिए बढ़ती नशे की प्रवृçत्त परेशानी का कारण है।

तब पुरानी आबादी सब्जी मंडी की जगह `छप्पड़´ हुआ करता था


कहते हैं कि इंसान जब 100 साल का हो जाता है, तो इस उपरांत उसमें बचपन की झलक नजर आने लगती है। जिस तरह बचपन बिताया, ठीक उसी प्रकार उम्र के इस पड़ाव में व्यक्ति की अंतराüत्मा अनजान व निश्चित प्रतीत होने लगती है। करीब 100 वषीüय मोहनलाल धींगड़ा का शरीर अब पहले जितना साथ नहीं देता, लेकिन उनके लबों से निकलने वाला हरेक लफ्ज यह बयां करता है कि वे आज भी बहुत कुछ करने में समक्ष हैं। पुरानी आबादी (धींगड़ा स्ट्रीट) निवासी धींगड़ा के अनुसार करीब 40-50 साल पहले वे निकटवतीü गांव कोठा में रहा करते थे, तब शहर गंगानगर साइकिल के जरिए आया करते थे। सरकारी सेवा से रिटायर धींगड़ा बताते हैं कि कभी-कभी साइकिल खराब हो जाती थी तो पैदल ही शहर से गांव आया-जाया करते थे। वे बताते हैं कि आज पुरानी आबादी में जहां सब्जी मंडी लगा करती है, तब यहां पशुओं के लिए छप्पड़ (पानी का तालाब) हुआ करता था। लोग यहां पशुओं को नहलाया करते थे। धीरे-धीरे विकास होता गया और यहां सड़क मार्ग व सब्जी मंडी बन गई। बकौल मोहनलाल धींगड़ा तब शहर को रामनगर के नाम से पुकारा जाता था, जब यहां गंगनहर लाई गई, फिर शहर का नाम गंगानगर रखा गया। भारत-पाक बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थियों को कोठा गांव में चने, गुड व दूध खिलाकर सुबह गंतव्य के लिए रवाना कर दिया करते थे। वे कहते हैं कि जब कोई मुसीबत में हो तो जात-पात व धर्म को एक बार छोड़ देना चाहिए और इंसानियत की राह पर कदम बढ़ाते हुए मदद के लिए आगे आना चाहिए।

Thursday, January 29, 2009

`मशीन वाला ठेला´ देखकर हैरान रह गए थे लोग

वो भी वक्त ही था, जब लोगों कोसों दूर तक पैदल या फिर बैलगाड़ी के सहारे से आया-जाया करते थे, लेकिन आज तो बच्चों को पढ़ने जाने के लिए भी मोटरसाइकिल चाहिए। उम्र के 77वें वर्ष में प्रवेश कर चुके करणपुर निवासी कश्मीरीलाल डंग आज के समय हो रहे अनावश्यक खचेü को आने वाले कल की बबाüदी मानते हैं। हिंदी, पंजाबी व उदूü सहित कई अन्य भाषाओं के जानकार कश्मीरीलाल बीते कल को यादों के रूप में समेटे हुए हैं। करीब पचास साल पहले की बातों को छेड़ते हुए वे कहते हैं कि बैलगाड़ी के अलावा आवागमन का कोई प्रमुख साधन नहीं हुआ करता था। उनके कस्बे में पहली बार जीप को सांसद बारूपाल लाए थे, जिसके देखकर लोग हैरान रह गए और लोगों ने उसे `मशीन वाला ठेला´ नाम दिया। काफी समय तक लोग जीप को मशीन वाला ठेला कहा करते थे, बाद में जीप नाम का इस्तेमाल किया जाने लगा। वे बताते हैं कि आज चुनावों पर जो खर्च हो रहा है, पहले ऐसा नहीं था। ना तो विवाद होता था और ना ही प्रचार के लिए इतना खर्च। तब तो हाथ खड़ा करके सरपंच चुन लिया जाता था। प्रतिद्वंद्वता जैसी स्थिति कम देखने को मिलती थी। उन्होंने बताया कि 18 साल की उम्र में उनका विवाह हुआ था और 26वें साल तक वे पांच बच्चों के पिता बन चुके थे। तब बड़े परिवार का आसानी से पालन-पोषण हो जाया करता था, लेकिन आज के समय में ऐसा संभव नहीं है। परिवार जितना छोटा हो, उतना ही सुखी रहता है।

सोने का भाव 40 रुपए था, फिर भी खरीदार कम थे


सब मिलजुल कर रहते थे। न तो कोई किसी जात से घृणा करता था और न ही किसी धर्म से। फिर भी न जाने क्यूं भारत-पाक बंटवारे के वक्त कत्ल-ए-आम हुआ। शायद वो वक्त की बेहरहमी ही थी। करीब 87 वषीüय सरस्वती देवी से जब कोई पुराने समय की बात करता है तो वे बंटवारे के समय की आपबीती बताने से नहीं चूकतीं। वे बताती हैं कि पाकिस्तान के बहावलनगर में हनुमान जी का मंदिर हुआ करता था, जहां बड़ी श्रद्धा व उल्लास के साथ लोग कीर्तन के लिए एकत्रित हुआ करते थे, जो आज भी याद है। उन्होंने बताया कि उनकी शादी के वक्त सोने का भाव 40 रुपए तोला हुआ करता था, लेकिन खरीदने वालों की कमी थी। बड़े सस्ते व टिकाऊ जमाने में एक रुपए का पांच किलो गुड़ व दो रुपए किलो काजू आ जाया करते थे। बकौल सरस्वती देवी 1947 में वे परिवार सहित भारत आईं। तब यहां चुनिंदा घर हुआ करते थे। वे बताती हैं कि महाराजा गंगासिंह की रियासत के समय लूटपाट-अन्याय के भय जैसी कोई चीज नहीं हुआ करती थी। आजकल तो कदम-कदम पर खौफ है। तब महाराजा गंगासिंह गणगौर जी की सवारी के दौरान लोगों से मुखातिब हुआ करते थे। वे हर किसी का सम्मान करते थे और लोगों के दिलों में भी उनके प्रति आदर भाव था। वे बताती हैं कि आज वक्त बहुत बदल चुका है, बुजुगोZ के प्रति लोगों का रवैया भी बदला है। नाती-पोतों वाली सरस्वती देवी सिविल लाइंस स्थित अपने पुत्र के साथ क्वार्टर में रह रही हैं। उन्हें बच्चों व महिलाओं से पुराने समय की बातें करना बहुत अच्छा लगता है।

Tuesday, January 20, 2009

घर की रिड़की हुई लस्सी और मक्खन अब कहां...

अतीत में डूबना कुछ हद तक तो सामान्य बात है, लेकिन अधिकांश समय तक अतीत में डूबे रहना भी ठीक नहीं। बात जब बुजुçर्गयत की चली तो 76 वषीüय बलवंतसिंह çढल्लों ने बताया कि पुराने समय को इंसान ज्यादा याद न करे, लेकिन उसे भूला देना भी उचित नहीं है। गांव से जुड़े लम्हों को यादों में समेटे बलवंतसिंह बताते हैं कि भारत-पाक बंटवारे के बाद वे पंजाब आकर रहने लगे, इसके बाद श्रीगंगानगर में घर बना लिया। मीरा चौक निवासी बलवंतसिंह बताते हैं कि मां का घर में लस्सी को रिड़कना और मक्खन निकालकर खिलाना आज भी याद है। लस्सी रिड़कने वाली रंगली मधानी को देखकर पास बैठे बच्चों के मुंह में पानी आ जाता था, क्योंकि मक्खन जो मिलने वाला है। पर अब वो वक्त बीत चुका है। वस्त्र व्यवसायी çढल्लों आज भी टू-व्हीलर पर शहर ही नहीं बल्कि नजदीकी गांवों में अकेले ही घूम आते हैं। बढ़ती उम्र को वे कुछ नहीं समझते, क्योंकि समय पर खाने के मामले में हर वक्त सचेत रहना उनकी आदत है। पौते-पौतियों वाले çढल्लों बताते हैं कि पुराने समय में मां कई बीमारियों का देसी इलाज घर में कर दिया करती थी। लालच से दूरी बनाए रखने के लिए वे कहते हैं कि-

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।

आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।