Sunday, March 8, 2009
तब 64 पैसे का एक रुपया होता था
किसी ने लिखा है कि - बचपन का जमाना होता था, खुशियों का खजाना होता था। चाहत चांद को पाने की और दिल तितली का दीवाना होता था। इंसान के अतीत में बचपन का अहम रोल होता है। अनजान बचपन हर चीज को पाने की ख्वाहिश पाल लेता है। अतीत में कई लम्हें ऐसे हैं, जिन्हें भुलाया जा सकता है, लेकिन बचपन नहीं। पुरानी आबादी निवासी 72 वषीüय दानाराम छींपा बताते हैं कि पुराने समय में स्कूलों में पढ़ाई का तरीका अलग होता था। तब वाणिज्य शिक्षा में सवाइया, पव्वा व अद्धा आदि शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था। अब इसका प्रचलन नहीं है। वे बताते हैं कि 64 पैसे का एक रुपया होता था, बंटवारे के काफी समय बाद 100 पैसे का एक रुपया हुआ। पाई, धेला और 64 पैसे का रुपया चलता था। उन्होंने बताया कि करीब 1945 मेंे यहां पहली बस चलाई गई, जिसका रूट पदमपुर से गंगानगर का कच्चा रास्ता था। पçब्लक पार्क में वह बस खड़ी रहती थी। वे बताते हैं कि बंटवारे से पहले कुछ ही ट्रेनें चला करती थीं, जिनमें से एक कलकत्ता टू कराची (केके) जो हिंदुमलकोट से होकर गुजरती थी। निकटवतीü गांव बख्तांवाली, ढींगावाली आदि जगह मुसलिमों की संख्या अधिक थी। बंटवारे के दौरान पाक जाने वाले मुसलिमों ने पुरानी आबादी स्थित कोçढ़यों वाली पुली के निकट तीन दिन तक शरणस्थली बनाए रखी। इस दौरान मुसलिमों ने बैल-ऊंटगाड़ों पर सामान लाद रखा था। पलंग व अन्य घरेलू सामान उन्होंने यहां लोगों को बेच दिया। वह बड़ा अजीब सा दृश्य था, जो आज तक याद है।
Tuesday, March 3, 2009
बाहर से आने वाले सामान पर लगता था `जकात´
जीवन को पटरी पर निरंतर चलने देने के लिए अतीत भी एक सहारे के रूप में काम करता है। बीते दिनों की यादों में बहुत से मीठे-कड़वे अनुभव भी çछपे होते हैं। करीब 72 वषीüय भगवानदास नागपाल ने बताया कि भारत-पाक बंटवारे के दौरान खाली हाथ और केवल बदन पर कपड़े थे। यहां आने पर नए सिरे से जीवन की शुरुआत की। कठिनाइयों के बावजूद एमए, एलएलबी की शिक्षा हासिल की। तब इतने साधन नहीं हुआ करते थे, फिर भी कभी उनकी कमी का अहसास नहीं होता था। उन्होंने बताया कि पुराने समय में क्षेत्र में बाहर से आने वाले सामान पर कर (जकात) लगाया जाता था। व्यापार मंडल भवन व कचहरी के नजदीक जकात थाने बने हुए थे, जहां जकात लिया जाता था। कर तो अब भी लगता है, लेकिन पुराने तरीके और आज के तरीके में काफी अंतर है। पहले सब बाहर से आने वाले सामान पर लगने वाले कर को जकात कहा करते थे। नागपाल ने बताया कि पेयजल का एकमात्र साधन डिçग्गयां हुआ करती थीं। बचपन के वक्त डिçग्गयों के बाहर बाçल्टयों से पानी भरकर नहाया करते थे। युवा पीढ़ी को प्रकृति से सामंजस्य बनाकर चलने के साथ ईमानदारी की सलाह देते हुए नागपाल ने कहा कि आज स्टेट्स सिंबल में परिवर्तन आया है। तब के समय यदि किसी के पास घड़ी अथवा साइकिल भी होती थी तो वह सुविधाएं उक्त व्यक्ति की अमीरी को दशाüती थीं। गंगानगर के एसडी कॉलेज से पहले बैच में लॉ करने वाले नागपाल का कहना है कि महंगाई के इस दौर में इंसान को खर्च सोच-समझकर करना चाहिए।
महंगाई के दौर में वक्त की जरूरत हैं छोटे परिवार
कहते हैं कि वक्त जब बदलता है तो इंसान उसी दहलीज पर आ खड़ा होता है, जिसे वो कभी ठोकर मारकर चला गया था। इसलिए वक्त की कद्र करनी चाहिए। किसी गरीब के पहनावे को देखकर उसे दुत्कारना नहीं चाहिए। अपने दिल में कुछ ऐसी ही मंशा रखते हैं 82 वषीüय हनुमानप्रसाद शर्मा। जे-ब्लॉक निवासी शर्मा बताते हैं कि जिंदगी के बीते दिनों की हंसी यादें जीने की ताकत को बढ़ाने में मदद करती हैं तो फिर कैसे भूल जाएं उन पलों को। जिंदगी में माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई परोपकार नहीं, यह खुद भी सीखा और दूसरों को भी सिखा रहे हैं। वे बताते हैं कि तब इंसान की रगों में मेहनत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि भी होती थी। काम-धंधों में आज जो मेहनत लगती है, उतनी तब भी लगा करती थी। लेकिन आज व्यक्ति में सब्र नजर नहीं आता। गर्मी के दिनों में कबड्डी बहुत खेला करते थे, लेकिन आज मानो जैसे कबड्डी खेलना जैसा शरीर ही किसी के पास नजर नहीं आता। कुश्ती-कबड्डी प्रमुख खेलों में शामिल थे। उन्होंने कहा कि तब बीमारियों का इलाज बिना डॉक्टरों के लोग घरों में देसी नुस्खों से कर लेते थे। करीब पचास साल पहले आठ-दस बच्चों का एक परिवार में होना तो आम बात होती थी। अब छोटे परिवार महंगाई के इस दौर में वक्त की जरूरत हो गए हैं। उन्होंने बताया कि कोई उनसे गुजरे जमाने की बातें सुनने आता है तो बहुत अच्छा महसूस होता है। बुजुगाüवस्था में ज्यादातर लोगों को गुजरना पड़ता है, इसलिए ऐसे कर्म करने चाहिए कि बुढ़ापा भी अच्छे ढंग से व्यतीत हो जाए।
Sunday, March 1, 2009
लुप्त हो रहा है चरखा कातने का प्रचलन
अकसर जब उन रास्तों से गुजरता हूं, जहां बचपन बिताया, तो लगता है कि वो सड़कें रूठी हुई हैं और खेलने के लिए फिर से बुला रही हैं। जागती रातों का दीवारों को ताकना मानो बीते लम्हों को याद दिला रहा है। उम्र के 70वें वर्ष में प्रवेश कर चुके एच-ब्लॉक निवासी मनजीतसिंह बताते हैं कि अतीत में बचपन का भी कुछ हिस्सा है, जो चाहकर भी नहीं भुला पाता। कपड़ों की बनी दड़ी (गेंद) से मार-धाड़ खेलना और अंधेरा होने पर कभी-कभार घरवालों की डांट सहना, बड़े अच्छे दिन थे वो। उन्होंने बताया कि पुराने समय में महिलाएं चरखा कातती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। चरखा कातना अत्यंत रोचक दृश्य होता था। रिटायर्ड हैडमास्टर मनजीतसिंह ने बताते हैं कि तब गे्रजुएट के लिए तो सरकारी नौकरी घर चलकर आती थी, लेकिन आज पोस्ट-ग्रेजुएट भी वंचित हैं। उन्होंने भी शिक्षा विभाग के दफ्तर में पढ़ाई संबंधी दस्तावेज दिखाए और उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। आज तो अनेक प्रकार के कंपीटीशन से होकर गुजरना पड़ता है। नौकरी के दौरान ही बीएड की, जिसके बाद उन्नति मिली। बचपन में मां कहानी-लोरी सुनाकर बच्चों को सुलाया करती थी, आज वो प्रचलन नहीं है। आज तो मां-बाप बच्चों को मोबाइल की रिंगटोन सुनाकर चुप कराते हैं। पुराने समय में ऐसी कल्पना नहीं की थी कि कभी ऐसा समय आएगा, जब बिना तारों के लोग मीलों दूरी तक बातें कर सकेंगे। जो समय बीत गया तो वो लौटकर नहीं आ सकता है, लेकिन जब बीत दिनों के बारे में कोई पूछता है तो अच्छा महसूस होता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)